Tuesday, July 15, 2014

धरा और आकाश कि अनबन...

सिलसिला
ऐसा ही चल रहा है
कई रोज़ से
रोज़ बादल घुमड़ कर आता है
तरसाता है
और
फिर छट जाता है
तरेरने लगता है सूरज।

पंछियो का व्याकुल शोर
सुनते ही बीत रहा हैं
इस गर्मी ये दिन।
शीतल हवाएं भूल गयी हैं
मेरे घर आँगन का पता जैसे। 
रोज़ अनुमान लगाती हूँ
अब तो सावन भी शुरू है
मानसून चल पड़ा होगा
आएगी आज पक्का बरसात।

पर
जाने क्या अनबन हुई है ?
धरा और आकाश के बीच
कि धरती कबसे तड़प रही है
सूख के चटक गयी है
और बरसात नही होती
नाराज़गी कि उमस को
जर्रा-जर्रा झेल रहा है। 

कबसे पूछ रही हूँ दोनों से
कारण क्या है बताओ न
किन्तु दोनों ही चुप हैं
अब ऐसे में मैं
कैसे सुलझाऊँ ये अनबन ?


------------------परी ऍम 'श्लोक'

3 comments:

  1. बहुत ही अच्छी लगी मुझे रचना.......... शुभकामनायें ।

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