Monday, October 20, 2014

फिर भी वह इक शादी है ....!!

शादी जैसे
किसी तूफ़ान का नाम है
इस विषय के चलते ही
नज़र के सामने
परिवर्तनों का पहाड़
खड़ा हो जाता है
पहनावे से सोच तक
संस्कृति से संस्कार तक
स्वभाव से व्यवहार तक
सब पुराना चोला उतार कर
नया चोला धारण करना पड़ता है

समर्पण नियति बन जाती है
सपना भूली-बिसरी कोई बात
अपना अस्तित्व बन जाता है
किसी के होने न होने का मोहताज़

बेशक पुरुष का बर्ताव
बेहतर हो या संकीर्ण
पर स्त्री को अपने दायित्वों का
निर्वाह करना ही पड़ता है

लचक उसकी गर्दन में
झुकाव उसकी आँखों
भर दिया जाता है
सभ्यता के नाम पर....

देह से शुरू हुआ रिश्ता
मन तक पहुँचे या न पहुँचे
लेकिन ज़रूरत के रास्ते पर चलता हुआ
बहुत दूर निकल जाता है
हम समझ ही नहीं पाते इक दूसरे को
और जिंदगी अपने अंतिम
पड़ाव पर पहुँच जाती है

मेरी समझ से बाहर है

वो रिश्ता जिसमे न प्रेम है
न आपसी समझ और न विश्वास है
जिसमे इक दूसरे के सत्य को
जानने और स्वीकार करने का साहस नहीं
जिसमे झूठ कि फफूंदी लगी हो
जिसमे स्त्री को सर्वत्व न्यौछावर करती है
किन्तु पुरुष केवल अपेक्षाएं करता है
जिसमे सात वचनो में से
इक भी वचन नहीं निभाया जाता

लेकिन फिर भी वह इक शादी है !!

 _____________
© परी ऍम 'श्लोक'

 

7 comments:

  1. फिर भी वह एक शादी है।
    विचारणीय है ....।।
    पर जिन्दगी का एक दूसरा भी तरीका है...खुद को खो कर किसी को जिन्दगी देना ।
    शायद ।।।।

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  2. बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
    आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी पोस्ट हिंदी ब्लॉग समूह में सामिल की गयी है और आप की इस प्रविष्टि की चर्चा - मंगलवार- 21/10/2014 को
    हिंदी ब्लॉग समूह चर्चा-अंकः 38
    पर लिंक की गयी है , ताकि अधिक से अधिक लोग आपकी रचना पढ़ सकें . कृपया आप भी पधारें,

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  3. Prastuti behtareen hai par, purusho ke prati pakshpati laga. Har vyakti ke liye rishte ke alag alag manayne hote hai ji :)

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  4. शायद इसी को समाज कहते हैं ... और अपना समाज ... न चाहते हुए भी निभाना ...

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  5. शादी एक ऐसा संबंद है जिसे बराबर का रिश्ता होना चाहिये.....समाज को और "आदमी" की सोच को बदलना होगा ...केवल एक लड़की का ही संघर्ष नहीं हर इन्सान का है जो बराबरी का दर्जा उसे देना चाहता है

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  6. देह से शुरू हुआ रिश्ता
    मन तक पहुँचे या न पहुँचे
    लेकिन ज़रूरत के रास्ते पर चलता हुआ
    बहुत दूर निकल जाता है
    हम समझ ही नहीं पाते इक दूसरे को
    और जिंदगी अपने अंतिम
    पड़ाव पर पहुँच जाती है
    आपकी रचनाओं में एक प्रेरणा या फिर समाज की हकीकत नजर आती है ! बहुत बेहतर रचना लिखी है आपने परी जी

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