Thursday, October 16, 2014

मन पंछी है


सरहदें होंगी तेरे लिए
और तू सरहदो का पहरेदार

शायद ! कि
अभी तू मन के पाले नहीं पड़ा
किसी अहसास ने तुझको
शिकंजे में नही जकड़ा

मन भी न पागल पंछी है
नापता नहीं ज़मीं कभी
पूरा परवाज़ उसका है
वो हर ओर जाता है
कहीं कुछ छोड़ आता है
तो कुछ बटोर लाता है
फिर अपना घर बनाताहै
जिसे मौसम ढाहाता है

ये पंछी जानता है
हश्र अपनी मनमौजी का
लेकिन फिर भी किसी
अंजाम से ये नहीं डरता
जेहन कितना भी पढ़ाये पाठ
मगर ये नहीं पढ़ता 
बड़ा अनपढ़ अनाड़ी है

बेशक काट दो पर
लड़खड़ा के ज़मीं पर गिर जाए
मगर मुमकिन कहाँ कि
इसकी बुलंदी को मिटाया जाए?

___________
© परी ऍम. 'श्लोक'

5 comments:

  1. बहुत सुन्दर भाव... मन की उड़ान की सीमा क्यों

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  2. बहुत ही सुंदरता से भावों का प्रवाह बनाया है आपने

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  3. मन पंछी भी तो ऐसा ही होता है ... कहाँ किसकी मानता है ...

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  4. बहुत खूब ! पंछी बावरा होता ही इतना पागल है ! यह कोई सीमा नहीं जानता किसी बंधन को नहीं पहचानता ! बहुत सुन्दर रचना !

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