जिंदगी
के रेलवे ट्रैक पर
हर
कदम पर मौजूद हैं
दर्द
के लावारिस जिन्दा बम
जब
भी ये धमाके से फटते हैं
तो
लहु हो जाते हैं
आँखों
के रेल पर सवार
मेरे
मासूम निर्दोष से ख़्वाब
बेवा
हो जाती हैं उम्मीदें
धुआँ
हो जाता है मन का आलम
ए
अजनबी मेरे मसीहा
तुमसे
मदद की गुहार है
तुम
आओ।
कि
भरी तन्हाई में
दर्द
के ये जिन्दा बम डिफ्यूज करदो।
©
परी ऍम. "श्लोक"
परी जी, बहुत सुदर एहसास से परिपूर्ण रचना ...
ReplyDeletePari ji, I believe "diffuse" should be used instead of "रिफ्यूज़". Correct me If I am wrong.
ReplyDeleteAcchi rachna pari ji
ReplyDeleteबहुत सुदर एहसास..!!
ReplyDeleteवाह वाह ...दहशत ...बम ...धमाके ....और बेचारे मसीहा को बम डिफ्यूजल की ड्यूटी पे लगा दिया ....
ReplyDeleteबेहतरीन ... निःशब्द करती रचना
ReplyDeleteअच्छा लगा आप का विचार -
ReplyDeleteए अजनवी मेरे मसीहा नही पर मसीहे का काम करते रहे |
लाख आये बला भाग्य में साथ चलते रहे कुछ कहते रहें ||