Tuesday, July 28, 2015

ए अजनबी मेरे मसीहा

जिंदगी के रेलवे ट्रैक पर
हर कदम पर मौजूद हैं
दर्द के लावारिस जिन्दा बम
जब भी ये धमाके से फटते हैं
तो लहु हो जाते हैं
आँखों के रेल पर सवार
मेरे मासूम निर्दोष से ख़्वाब
बेवा हो जाती हैं उम्मीदें
धुआँ हो जाता है मन का आलम
ए अजनबी मेरे मसीहा
तुमसे मदद की गुहार है

तुम आओ।
कि भरी तन्हाई में
दर्द के ये जिन्दा बम डिफ्यूज करदो।  

© परी ऍम. "श्लोक"

7 comments:

  1. परी जी, बहुत सुदर एहसास से परिपूर्ण रचना ...

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  2. Pari ji, I believe "diffuse" should be used instead of "रिफ्यूज़". Correct me If I am wrong.

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  3. बहुत सुदर एहसास..!!

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  4. वाह वाह ...दहशत ...बम ...धमाके ....और बेचारे मसीहा को बम डिफ्यूजल की ड्यूटी पे लगा दिया ....

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  5. बेहतरीन ... निःशब्द करती रचना

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  6. अच्छा लगा आप का विचार -
    ए अजनवी मेरे मसीहा नही पर मसीहे का काम करते रहे |
    लाख आये बला भाग्य में साथ चलते रहे कुछ कहते रहें ||

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