Sunday, May 25, 2014

दास्तान....!!

खामोश थी कोई कुछ भी उगलता चला गया
वो क्या झुकी? ये हुजूम तनता चला गया

अच्छा-बुरा क्या है? किसी को मालूम तक नहीं
उसकी खताओं के लिए सब देवता बनता चला गया

गरीबी देख कर अपने घर से रोटी को क्या निकली
ज़मीर उसका कई इल्जामो में सनता चला गया

जिसके लिए थी आबरू जिंदगी की अहम् डोर
चाहत की आरज़ू में सबकुछ छिनता चला गया

हर किसी की उंगली में तलवार जुबा पे रंज था
हर सवाल उसके सब्र को खनता चला गया

देखा था अक्सर उसके चहरे पे नूर गज़ब का 
उसने जख्म दिखाएँ मैं दर्द से गलता चला गया

कितने शिकवे कैद थे उसके लबो की लालिओ में
उसने जुबां खोली मैं सदमे में सब सुनता चला गया

पत्थर सा रह गया था कोमल जो उसका दिल था
उसके शबनम का हर कतरा सैलाब बनता चला

मैं सोच में पड़ गया कि क्या करूँ मेरे मौला
कहाँ फरिश्ता था मैं
उसकी पीठ थपथपा के मैं भी उठकर चलता चला गया

ये मेरी हार थी जीत थी या थी कोई कमज़ोरी
उसके करीब होकर भी उससे दूर मैं निकलता चला गया !!!   

 
ग़ज़लकार : परी ऍम 'श्लोक'

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