ज़िन्दगी खोयी
खोयी सी रहती है
और मेरे
दोनों हाथ खाली होते हैं
साँसे एक
बोझ सी लगती है मुझे
जिस्म कुछ हल्का-हल्का
सा होता है
रूह पे
उदासी की घटा छाती है
आँख फिर जम
के बरस जाती है
रात तेरी
यादों के रस्ते चलकर भी
जब निग़ाह
तुझको न सुबह पाती है
ख़्वाब सब
झूठे मुझे लगते हैं
मैं तह
से उधड़ जाती हूँ
अरमां जब धुंआ-धुंआ से
होते जाते हैं
सोचने लगती
हूँ मैं तब जुर्म अपना
फिर मोहब्बत
को वज़ह पाती हूँ
दिल को बस
ये मलाल रहा करता है
न कोई
उम्मीद न ख़ुशी बाकी
और न तू ही हो
सका मुकम्मल मेरा
फिर आख़िर किससे
वफ़ा निभाती हूँ
रोज़ क्यूँ बेहिस सी जिए जाती हूँ
© परी ऍम. 'श्लोक'
बहुत सुन्दर रचना, खुद से सवाल उठाते हुए
ReplyDeleteफिर आख़िर किससे वफ़ा निभाती हूँ
ReplyDeleteरोज़ क्यूँ बेहिस सी जिए जाती हूँ
बहुत सुन्दर वाह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह
आप की बेहतरीन रचनाओं पर नियमित टिप्पणी न कर पाने के हेतु खेद है । सादर
ReplyDeleteआप की बेहतरीन रचनाओं पर नियमित टिप्पणी न कर पाने के हेतु खेद है । सादर
ReplyDeleteअरमां जब धुंआ-धुंआ से होते जाते हैं
ReplyDeleteसोचने लगती हूँ मैं तब जुर्म अपना
फिर मोहब्बत को वज़ह पाती हूँ
दिल को बस ये मलाल रहा करता है
न कोई उम्मीद न ख़ुशी बाकी
और न तू ही हो सका मुकम्मल मेरा
क्या बात है ! आप इतना खूबसूरत लिखती हैं परी जी , दिल की गहराइयों तक पहुँच जाते हैं आपके शब्द