Monday, June 1, 2015

मेरे अंदर कोई दरिया ज़रूर है।

तन्हाईयों में शोर सा मचता है
दिल  आवाज़ों से सहम जाता है
सीने में उफान सा उठता है
सब्र की चट्टान से टकराता है
बेचैन मौजें बहुत दूर तक जाती हैं
सुकूं का आशियाँ बिखेर आती हैं
रेज़ा-रेज़ा जीने का हौसला बुनती हूँ
मगर जब याद तू आता है
फिर गम बाज़ कब आता है ?
उदासियों का मुंजमिद सैलाब पिघलता है
आँखों की ढ़लानों से गिरता है
रूह की तितलियाँ भीग जाती हैं
रूमालों की कश्तियाँ डूब जाती है


मेरे अंदर कोई दरिया ज़रूर है।

_________________
© परी ऍम. 'श्लोक' 

6 comments:

  1. दरिया सतत बहती रहनी चाहिए . सुंदर रचना.

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  2. परी जी बधाई इस भावपूर्ण अभिव्यक्ती के लिये .. आँखों की ढ़लानों से गिरता है रूह की तितलियाँ भीग जाती हैं...शब्दों का जादू है आप की कलम में

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  3. बहुत खूब्सूरत रचना, बधाई

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  4. सूंदर रचना। अपने भावो की अभिव्यक्ति और शब्दों का चयन दोनों ध्यान बटाते है। शुभकामनाए।

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  5. सूंदर रचना। अपने भावो की अभिव्यक्ति और शब्दों का चयन दोनों ध्यान बटाते है। शुभकामनाए।

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  6. बेचैन मौजें बहुत दूर तक जाती हैं
    सुकूं का आशियाँ बिखेर आती हैं
    रेज़ा-रेज़ा जीने का हौसला बुनती हूँ
    मगर जब याद तू आता है
    फिर गम बाज़ कब आता है ?
    बहुत खूब्सूरत रचना परी जी

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