ये ज़रूरी तो नहीं
कि
मुझपर रोज़ मेहरबां हो
ख़ुदा
उसके दर पर भी तो लाखों
सवाली होंगे
ये ज़रूरी तो नहीं कि
रोज़ मेरे जज़्बातों को
मिलते रहे लव्ज़ नए
और हर रोज़ ख़्यालों
को
तेरी गली में आने की
इज़ाज़त हो
यूँ रोज़ दरीचे का पर्दा
हटा मिल जाए
चाँद मुझे ऐन चमकता हुआ
दिख जाए
कभी ये भी तो हो
सकता कि
खाली-खाली शब-औ-सहर
गुज़र जाए
कुछ सूझे न मुझे कहने
को और दिन मर जाए
ये ज़रूरी तो नहीं कि
दिल मेरी उंगलियों का
साथ दे हरदम
कलम दिल की तमाम उलझन
समझे और मैं रोज़ लिखूं
ये ज़रूरी तो नहीं !!
© परी ऍम. 'श्लोक'
बहुत सुन्दर रचना
ReplyDeleteबिलकुल ये जरुरी नहीं हर दिन कलम चले और बेहतरीन ही लिखे पर दिल की आवाज़ दबाई तो नहीं जा सकती पर हर बार की तरह आपकी एक और उम्दा रचना
ReplyDeleteसत्य
ReplyDeleteशानदार कल्पना पूर्ण रचना परी जी |
ReplyDeleteखूबसूरत
ReplyDeleteहृदयस्पर्शी भावपूर्ण प्रस्तुति.बहुत शानदार ,बधाई. कुछ अपने विचारो से हमें भी अवगत करवाते रहिये.
ReplyDeleteअनूठे अहसास - लाजवाब
ReplyDeleteसुन्दर रचना । सुन्दर भाव
ReplyDeleteसुन्दर रचना
ReplyDeleteबहुत खूब परी जी।
ReplyDeleteसादर
बेहतरीन
ReplyDeleteवाह ---- बेहद खुबसूरत रचना
ReplyDeleteबधाई
होना तो कुछ चाहिए
कभी ये भी तो हो सकता कि
ReplyDeleteखाली-खाली शब-औ-सहर गुज़र जाए
कुछ सूझे न मुझे कहने को और दिन मर जाए
खूबसूरत एहसासों और अल्फ़ाज़ों से सजी शानदार अभिव्यक्ति परी जी !
बिलकुल ज़रूरी नहीं
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