Thursday, April 17, 2014

!! मंदिर-मस्जिद कब इंसान बांटता है ? !!

मैं अकेली कहाँ ? जो शहर में गमज़दा है
मेरे पीछे तो अभी बेहद लम्बा काफिला है

कुछ इक ने जिंदगी को किसी मोड़ से बदला
तो किसी ने सब वक़्त पे छोड़ा हुआ है

मैंने हर रात जलाये रखी आत्मा अपनी 
मेरी बेटी इन अंधेरो से जबसे ख़ौफ़ज़दा है

ये जान कर कैसे सोती भला मैं सकूं से
की मेरे घर का दरवाज़ा तो टूटा हुआ है 

मैं अपनी भूख की सोचती तो कैसे ?
मेरी रोटी तो वो गरीब बच्चा मांगता हैं

सब कोई गुम है साम्प्रदायिकता की धुंध में
वरना मंदिर-मस्जिद कब इंसान बांटता है ?


ग़ज़लकार: परी ऍम 'श्लोक'

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