Saturday, April 5, 2014

!!बाज़ारी लोग बहुत थे!!

मैं जिस मंज़र से गुज़री नकाबी लोग बहुत थे
शहर में जिस तरफ देखा जुआरी लोग बहुत थे

यकीन खुद पे न करती तो हुजूम के शक्स मसल जाते
अमीर थे शक्ल से लेकिन भीखारी लोग बहुत थे

इस जंगल में कब जाने निशाना कौन बन जाता 
खुले आम घूमते पैदल शिकारी लोग बहुत थे 

मैं भला कैसे इत्मीनान से रात है सोच सो जाती
अंधेरो के परदे के पीछे ज़िनाकारी लोग बहुत थे

मायने जिनके खातिर मोहोब्बत के हर रोज़ बदल जाते हैं
इस भीड़ में ऐसे भी खिलाड़ी लोग बहुत थे

जहाँ औरत लहूँ रही कटारो से बेवाफाई के
रिश्तो कि आड़ में ऐसे शुमारी लोग बहुत थे

कलम ने कहा 'श्लोक; छोड़
शबनम से पन्ने न भीग जाए
वरना मेरे ग़ज़ल में जिक्र से मरने वाले
बाज़ारी लोग बहुत थे !!!

 ग़ज़लकार : परी ऍम श्लोक

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