Sunday, April 6, 2014

"गीता"

सच है री !
सखी मेरी
इस जहान में
लोगो का ताँता है
पर तेरे बिन इस भीड़-भाड़ में
मन खुद को अकेला पाता है
तेरे संग रह मैंने जाना
दोस्ती का महत्व जीवन में
जो खून का रिश्ता भी
कभी-कभी निभा नहीं पाता है
है याद मुझे नवरातों में
संग मंदिर में मिल के जाना
वहाँ बैठ संगती में
खूब गीत-भजन मिलके गाना
इक जैसे रंगी कपड़ो में 
फोटो मिलके खिचवाते थे
अपनी दोस्ती पे स्मरण है तुम्हे?
हम मिलके कितना इठलाते थे
मैं जब शाम कार्यालय से
थक हार के घर को आती थी
पूरे दिन का ब्यौरा कैसे
तुझको बतलाती थी
ऐसी कितनी सुनेहरी यादे
मैंने जीवन कि किताब में लिख डाली हैं
जिसमे हैं दिवाली के पटाखो का शोर
और संग में होली के रंगो कि लाली है
आखिर वो दिन थे गुजर गए
हम तुम इक दूजे से बिछड़ गए
तू चली गयी जल्दी परदेश सखी
हम इसी आँगन में ठहर गए

कितनी अज़ीब बात है न ?
तू भी गुड़िया मैं भी बिटिया
पर कितना भाग्य हमारा बांटा हैं
नजाने क्या सोच सोच के
लिखता तकदीर विधाता हैं !!

रचनाकार : परी ऍम "श्लोक"
(अपनी सहेली गीता को प्रेम और स्नेह के साथ )

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