जिंदगी की यही बस कमाई रही
साँस अपनी थी धड़कन परायी रही
उनके पास थी दुनियाँ की सभी शोहरतें
मगर इनके बीच कहीं मैं गवाई रही
गैरो से मिलता रहा दिलासा मुझे
अफ़सोस अपनों से 'श्लोक' ठुकराई रही
शिकवा भी तब हमें जायज़ न लगा
देखा जब अंधेरो में गुम परछाई रही
खुदा ने भी अक्सर नज़रअंदाज़ किया
जाने क्या मेरी ख्वाइश में बुराई रही ?
मुकद्दर का अपना अज़ब खेल था
पास महफ़िल थी दिल में तन्हाई रही
अश्क ही अश्क मिले तेरी शोहबत में
हर बूँद से मचती बेहिसाब तबाही रही
जान कब तक रखते हथेली पर हम
बड़ी महँगी मुझे तेरी रुस्वाई रही
उसने कहा था कलम के असर को समेट
ज़मी से आसमान तक मगर मैं छायी रही
______
© परी ऍम 'श्लोक'
बहुत खूब
ReplyDeleteजिंदगी की यही बस कमाई रही
साँस अपनी थी धड़कन परायी रही
आपने बहुत सुनदर अभिव्यक्ति दी है।
ReplyDeleteसुंदर रचना , धन्यवाद !
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lajawab.
ReplyDeleteपरी जी क्या खूब लिखती हैं आप
ReplyDeleteDil ko chu liya yr
ReplyDeleteअभिव्यक्ति लाजवाब है.... गजल लिखने का प्रयास सराहनीय है... अब जल्दी से बह्र भी सीख लें तो चार चांद लग जाये... !!! :)
ReplyDeleteसुन्दर प्रवाह है भावनाओं का इस रचना में.
ReplyDeleteगैरो से मिलता रहा तिलासा मुझे
ReplyDeleteअफ़सोस अपनों से 'श्लोक' ठुकराई रही
शिकवा भी तब हमें जायज़ न लगा
देखा जब अंधेरो में गुम परछाई रही
खुदा ने भी अक्सर नज़रअंदाज़ किया
जाने क्या मेरी ख्वाइश में बुराई रही ?
बहुत बढ़िया ! लेकिन शायद तिलासा नहीं दिलासा होता है परी जी !
सच्चा सुख दुःखके भीतर है कौन इसे समझाये? शरीर दुःख रुप है और उसका संसारभी और भीतर जो भगवान है वह है सुख रुप और जो सत्त भी है और उसका नाम सिर्फ आनंद है। जिसका चित इस सत्तमे लगा है वह है सत्त चित आनंद स्वरुप। बाकी योग प्राणायम और ध्यान करते समय कोइ सुखका अनुभव नहि क्युकी हमारा योग संसार और शरीरसे होता है। अनुभव तो वह परमात्मा करवाता है जब दुःख रुपी शरीरसे ध्यान हटके अंदर बैठे ईश्वरमे लगता है। जब अर्जुनसे "भगवान" 'श्री' "कृष्ण" कह रहे थे तेरा मन बुध्धि मुजमे लगा तब यही मतलब निकलता है के शरीर जड, मन और बुध्धिभी जड है तेरा है यह जड साधन तु एक चेतन है॥ इस जड मे अस्तीत्व तेरा है एक और तेरे शरीरको तु चला रहा पर आधार एक मेरा(परमात्माका) है। भगवान जीसका रुप है हि नही पर बस जो चाहे रुप बनालो जैसी तुम्हारी "श्रधा", श्री 'शक्ति' है और शक्तिको जो "कर्म कौशल"मे वापरता है मुजमे मन बुध्धिको जोडके वह फिर उसिको भगवानका नाम दे देते है। बाकी बचा बाहरका रूप जीसे शरीर कहते है तो वह है मट्टीमे मिलने वाला और दुःख रुपसे लोग इसे जानते है, सुख रूप तो जिसको अंदर बैठे परमात्माका साक्षातकार हुवा उसके लिये जो अपनेको चेतन स्वरुप जानते है और जो शरीरको जीतेजी मनसे त्याग देते है और ध्यान एकहि परमात्ममे जोडे रखते है अंतिम सांस तक।
ReplyDeleteबेहतरीन रचना
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