Saturday, March 1, 2014

"मैं और जिंदगी"

जिंदगी के चहरे पर
इक अज़ब सा दर्द देखा मैंने
इसकी अहमियत से बेखबर लोगो में
साँसों के तौर पर जिन्दा वो जिंदगी
न चल पा रही थी
न रुक पा रही थी
वो चुप थी मगर
मुझे इशारा कर रही थी
उसकी आँखे पनीली थी
लब सिसक रहे थे
मुझे अपने नरम हाथो से पहले छुआ
और फिर थाम कर
अपने पास बिठा लिया जिंदगी ने
शायद कुछ कहना था
मगर क्या कहती ? कैसे कहती ?
वो इस सोच में
बड़ी देर तक खामोश रही
लेकिन उसे तो कहना ही था
क्यूंकि उसके सामने थी मैं
उलझन मुझे भी बहुत थी
कि आखिर जब लव्ज़ फूटेंगे
तो ज्वालामुखी कहाँ - कहाँ तक फैलेगा
कहीं मैं बह चली इस धार में तो ?
लेकिन उसे मुझसे ज्यादा परेशानी और हैरत
उसके माथे पर पसीना था
दिल में इक कसक इक डर 
मैंने अपने रुमाल से उसकी सिलवटे पोछ दी
अज़नबी होने का एहसास मिटा दिया
और उसे अपने गले लगा लिया
उसकी धड़कनो ने फिर मुझे वो सब कहा
बेखौफ, बेपर्दा हो
जो आज तक शायद किसी ने न सुना हो
जानते हो क्या ?
बस इतना मैं जिंदगी हूँ
मगर जाने क्यूँ ? किस खता के वास्ते ?
मरे हुए इंसानो ने कैद किया हुआ है
इसके बाद वो चुप्पी मुझपे टूट पड़ी
उसके अनकहे अल्फ़ाज़ काफी थे
मेरे समझ के लिए
फिर इक जेहद मुझमें उठी 
कभी ऐसा न हो कि ये जिंदगी
मेरे शिकवे के लिए
किसी और का कांधा तलाश ले !!

रचनाकार : परी ऍम 'श्लोक'

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