Saturday, March 1, 2014

"सफ़र"

वक़्त बेहत रफ़्तार में था
मैंने घडी कि टिकटिकी बंद करदी
क्यूंकि मुझे रुकने का मन था
दिन-रात अपनी मौज में थे 
मुझे लगा कि सब कुछ छूट रहा है
ये सुई बेशक रुकी हो
लेकिन वक़्त यूँ के यूँ अपने रोब में  
जिंदगी किसी दूसरी ओर चल पड़ी थी
मुझे जाना कहीं ओर था
तकदीर मेरे फैसलो पर टिकी थी
मगर सारा दोष तकदीर का था
मैं दिल के काबू में थी
शहर दिमाक लिए दौड़ रहा था
मैं जस्बाती थी जो गलत वो गलत
लोग पेशेवर उनके लिए सब सही
कोई गिरता तो मैं उठाने लगती
भीड़ मुझपे चढ़ जाती
कोई रोता मैं चुप कराने लगी
लोग मुझको छल जाते
मुझे लगा कि कद्र इंसानियत कि है
लेकिन चमक बहुत तेज़ शोहरत कि
आकर्षक था चौंधिया देता हर नज़र
इक कश्ती मुझे उस पार कर देती
सबसे जुदा, सबसे नायाब मुकाम पे
लेकिन दिल उस किनारे कि
रौनक में सिमटता चला गया
अब जिंदगी मुझे सवाल करती है
वक़्त मुझे तकियानुसी
पिछड़े ख्यालात कि उपाधि देता है
लोग मुझे दीवानी कहते है
ओर मैं फिर भी मुस्कुरा के
हर सितम तोहफा समझ के
कबूल करती हुई चल रही हूँ
अपनी मौज में आहिस्ता आहिस्ता !! 


रचनाकार : परी ऍम श्लोक
 

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