Wednesday, March 12, 2014

"घनघोर घटा"

नाच उठे हैं मोर
अपने पंखो को फैलाये
बादलो कि ऐसी रंगत देख के
काली काली
घनघोर घटाओ के
पनाहो में आज
उजली सी पारदर्शी बूंदो का
मेला लगा हुआ है
इसमें शामिल हूँ मैं भी
तुम भी, सखी भी
औऱ
ये प्रकृति के हरे भरे पौधे भी...
नहा रहे हैं पर्वत, ये झरने,
बुझा रही है प्यास ज़मीन
जो शायद पिछले बरखा से
ऐसे ही प्यासी है
आज तृप्त हो जायेगी
भीग रही हूँ मैं
बिन छाता, बिन छत के
सबके चेहरे पे मुस्कान है
फूलो में ताज़गी आ गयी है
हवा भी पाँव में
घुंघरू बाँध के आयी है
बिजलियो कि चमक
कभी-कभी मुझे चौका देती है
मगर
बारिश में भीगने कि उत्सुकता
मुझे ऐसे ही
बरसते बादलो के साये के नीचे
खड़ा किये रखती है
मैं हटी औऱ ढीठ
जबतक ये मेला खत्म नहीं होगा
मैं ऐसे ही आनंद उठाती रहूंगी
अब तुम ही बाताओ बरखा 
इतने दिन में तो तुम
लहराती हुई आयी हो
औऱ बलखाती हुई चली भी जाओगी
ऐसे में तुमसे मिलने से
मुझे कोई रोक सकता है क्या ??

रचनाकार : परी ऍम श्लोक

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