Saturday, March 29, 2014

"तुम हो हवा का झौंका कोई"

तुम मेरे जीवन में
हवा का वो झोंका हो
जो मुझे छूती हुई बेहद करीब से
गुजरती तो है अक्सर
मगर ठहरती कभी नही
न ही तुम्हे रोक पाना
मेरे वश कि बात है
किसी भी पल अपनी मनमानी करने
पहुँच जाती है जहाँ-तहाँ
इतनी सरगर्मियां बांधे हुए
गर्म सा रुख लिए ये हवा 
जब ज्यादा जस्बाती होती है
तो एहसासो के सारे बर्फ
पिघला कर भिगो देती है
मन का हर कठोर कोना
मुझे बहा ले चलती है
अपने खुमार के उफान में
कभी सागर से गागर भरके
पहुंचा देती है आकाश तक
और फिर वहाँ से बरस पड़ती है मुझपर
किसी भी मौसम में
कुछ पल हरा भरा करके
फिर सारे रंग उड़ा ले जाती है
अपने साथ ही
कभी झुका देती है
प्रणय से सनी हुई ज़मीन तक
कभी उठा देती है
अनाहक में अहम् के शिखर तक
सोचती हूँ क्यूँ न मैं
बंद करलूं सारे खिड़की दरवाजे
तुम्हे खड़ा रहने दूँ बाहर
ताकि तुम निराश होकर लौट जाओ
फिर कभी न वापिस आओ
ऐसे बेताब करने के लिए
और झूठे वहम में
गवाच देने के लिए मुझे
तब शायद !
कुछ हद तक समझ पाओ तुम
आलिंगन करके अलगाव कि
पीड़ा उगलती वो व्यथा
जिससे मैं तुमसे मिलने के बाद
अछूती नही रह पाई कभी !!


रचनाकार : परी ऍम श्लोक

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