मैं हारी तो बहुत मगर जीतती रही
हर ठोकर से कुछ न कुछ सीखती रही
मैंने अपनी सोच को जंगाने न दिया
तजुर्बो से जहन के आँगन को लीपती रही
गुजरे पल मुझसे कभी जुदा न हो
इस कोशिश में रात भर लकीर खींचती रही
कोई पढ़ न ले आँखों कि लालिया मेरे
पतरंगे के बहाने से आँख मींचती रही
बेचैनयो ने मेरी धड़कन बढ़ा रखी थी
हसरत मेरे कानो में हरपल चीखती रही
कही शज़र कांटो का पैर न पसार ले
मैं फूलो के राब से अपनी रूह सींचती रही
ग़ज़लकार : परी ऍम 'श्लोक'
हर ठोकर से कुछ न कुछ सीखती रही
मैंने अपनी सोच को जंगाने न दिया
तजुर्बो से जहन के आँगन को लीपती रही
गुजरे पल मुझसे कभी जुदा न हो
इस कोशिश में रात भर लकीर खींचती रही
कोई पढ़ न ले आँखों कि लालिया मेरे
पतरंगे के बहाने से आँख मींचती रही
बेचैनयो ने मेरी धड़कन बढ़ा रखी थी
हसरत मेरे कानो में हरपल चीखती रही
कही शज़र कांटो का पैर न पसार ले
मैं फूलो के राब से अपनी रूह सींचती रही
ग़ज़लकार : परी ऍम 'श्लोक'
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