अज़ब इत्तेफाक है.
कुछ खोया है
मगर वो जाने क्या है ?
जो मिलता नहीं ...
इक तरफ ये दिल है
कि मेरी ज़रा भी सुनता नहीं..
कैसे इस दुश्वारियों के
आलम से किनारा करती
हकीकत तू कभी था ही नहीं
फिर कैसे न मैं
इन ख्वाबो का सहारा करती
जीत कर मिलती अगर ख़ुशी
तो शायद थोड़ी कोशिश दोबारा करती
बार-बार फिर अपना सकून
तुझपे न हारा करती...
कहानी कि उधेड़ बुन में ही लव्ज़ खर्च कर दिए मैंने
फिर तेरा नाम न लिखती तो कैसे गुजारा करती??
कभी आकर देख तो
वीरानियो का सितम मुझपे
और फिर तू ही बता कि...
कैसे तुझे न इस हाल में मैं पुकारा करती ??
नूर कि तरह रही है आज तक मेरी हस्ती
किस-किस नज़र कि मार से खुद को संभाला करती..
तुम्ही ने देर करदी है आने में
और फिर है हज़ार शिकवा भी
अब तुम ही बताओ न मुझे
मैं कैसे बीते लम्हो को लौट आने का इशारा करती....
इस उलझन से मुझको करार मिलता नहीं
कम्बख्त !
कि तू इक वहम है
जो मुझमे है तो मगर तलाश कर भी मिलता नहीं!!
ग़ज़लकार : परी ऍम श्लोक
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