Sunday, March 2, 2014

"मेरी कश्मकश"

बड़ी उदासियाँ लेकर दिल में
मैं जब लिखने बैठी
बड़े मसले जहन कि
सीढ़ियों से उतर कर
उंगलियो कि नसो में छटपटाते रहे
क्या-क्या लिखती मैं
अपनी एक कविता में ?
ये कश्मकश थी मुझमे !
मैं न सो पा रही थी
न अक्षर इधर-उधर हो पा रहे थे
कुछ कहना बहुत ज़रूरी था
लेकिन वक़्त उसके लिए तय नही
कोई मुद्दा उठाना ज़रूरी था
लेकिन उसे सुनने वाला कोई नही
वात्सल्य को वेदना में लिखती
तो उसके मायने बदल जाते
दुविधा में कुछ लिखना
सही को गलत और
गलत को सही बना देता
मैं जागती रही कुछ कताएं
अंकित करने को कोरे पन्नो पे
मगर शुरुआत होता
तो अंत नही मिलता
सोच कि इसी उठक-बैठक से
मुझे हरारत हो गयी थी
और मैंने कुछ पल ये ख्याल उठा कर
सिरहाने के नीचे रख दिया
कि कल भोर के साथ
फिर मेरी एक नयी कविता
सूरज कि रोशनी कि तरह फैलेगी
और सबको सन्देश देगी
कि अब जाग जाओ...

फिर मैंने लिख डाली
अपनी कश्मकश अपने शब्दो में !!


रचनाकार : परी ऍम 'श्लोक'

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