Saturday, March 29, 2014

"मैं गाँव हूँ"

मैं गाँव हूँ
हरियाली से लदा-बदा
जिसकी मिटटी से सोंधी सी वो खुशबु
कभी नहीं जाती कहीं
मेरे केश वो पेड़ हैं
जिसकी शाखो पे कितनी चिरैयाँ आकर
अपना घौसला बनाती हैं
मेरी आँखे हैं
ताल, सरोवर, नदियां
जो फसलो को ताकती है तो वो जीते हैं
ये दिन कि लू के थपेड़े
मेरे सहनशक्ति के उदाहरण
और ये काली राते
मेरे सुस्ताने का समय   
मेरी बाजुए हैं पर्वत और ये पहाड़,
जिनके शिखर
मेरी महानता के गाथाकार हैं
लेकिन अब
मुझे तिल-तिल मारा जा रहा है
मेरे अस्तित्व पे कुल्हाड़ी दर कुल्हाड़ी
कई वार लगातार किये जा रहे हैं
मैं बदलता जा रहा हूँ नए रूप में
मेरे सीने पर बड़ी बड़ी ईंटो कि
मीनार बना डाली गयी हैं
जो मेरा दम घोटता जा रहा है
ये राते रोशनी से पूरी तरह लैस हैं
मैं न ही दिन कि तपिश को भाप पाता हूँ
न रात को चैन से सो पाता हूँ
मैं जागता हूँ
और देखता हूँ सब अपनी आँखों से
जिसे कारखानो के गर्द ने 
मोतियाबिन का ग्रहण लगा दिया है 
मगर बोलता कुछ भी नहीं
हाँ ! साहस ज़रूर जुटा रहा हूँ
खुद के खून का कतरा-कतरा निचुड़ते हुए
को दार्शनिक बनके देख पाने कि !!


रचनाकार : परी ऍम श्लोक
 

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