Thursday, March 27, 2014

" कभी-कभी"

कभी टूटे सपनो को
जोड़ने कि नाकाम कोशिश
कभी परछाइयो को
पकड़ने कि हैरान कोशिश
कभी बरसात कि बूंदो को
समेटने कि ताक में
कभी समंदर कि लहरो में
उतरने कि फिराक में
कभी मांझी बन के सोचती हूँ
कभी मुसाफिर बन के
साहिल कि ओर देखती हूँ
कभी प्रकृति अपने ओर खींचती हैं
कभी मसले मुझे
उनकी भाषा व्यक्त करने को
प्रेरित करते हैं
कभी मद्धम फ़ज़ा बन जाती हूँ
कभी धूल भरी आंधी
कभी उदासियाँ इतनी होती हैं कि
खुशियां लुप लुपा के खो जाती हैं
कभी मुस्कराहट के नीचे
हर वेदना दब के मर जाती हैं 
कभी चकोर कि तरह
आस्मां निहारती हूँ
कभी एक गरीब कि तरह
पेट के आगे सब कुछ हारती हूँ
कभी काँटों को
गुलाब बनके ढांप लेती हूँ
कभी कीचड़ में जीवन
कि हर स्वाश लेती हूँ
कभी नीम का पात हो जाती हूँ
तो कभी शहद या राब हो जाती हूँ
कभी स्त्री रूप मेरे लिए
इक व्यथा के अलावा कुछ नही होता
कभी इसपे गुमान का अवसर पा जाती हूँ
कभी बच्चा बनके अटखेलियां करती हूँ
कभी गम्भीरता का दर्पण बन जाती हूँ .

कभी-कभी तो 
ये ख्याल आता है कि
ये लेखन भी मुझे कितनी
जिंदगियो से जोड़ती हैं
जिस ओर कलम मुड़ती है
मैं उस एहसास के
तलातुम में डूब जाती हूँ
जीने लगती हूँ
कितनी भावनाओ कि
आकाश गंगा में
बिना किसी न नुकुर के

सच कहूं तो
कविता का अंश
सम्मिलित होते ही
कवि का जीवन बहुरंगी हो जाता है !!


रचनाकार : परी ऍम श्लोक

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