Wednesday, March 5, 2014

"उधेड़-बुन में"

इसी उधेड़-बुन में
न रात ढल जाए
और मैं फिर से
अपनी कश्ती को डूबता देखूं...

फिर सोचूं
कि काश !

जब मैं मौज में आती
तो लहरे इस कदर
बेरुखी न करती
बड़ी मोहोब्बत के साथ मुझे
ले चलती किनारो तक
किसी पत्थर से टकराए बिना..

अँधेरा करवट लेते ही
सुबह मेरी आँख में झाँकेगी
वो उम्मीद जो कश्ती पर सवार है ..

मगर  
कहीं उस पार जाने कि तमन्ना
यूँ ही बिछ न जाए
इन सागर कि सतहों में..

उम्मीद कहीं हलकी न पड़ जाए
और
मेरी जेरे-जमीं
अपनी बाहें फैलाये हुए
खफा हो जाए मुझसे
कभी न मानने के लिए !!


 रचनाकार : परी ऍम 'श्लोक'

 

2 comments:

  1. अँधेरा करवट लेते ही
    सुबह मेरी आँख में झाँकेगी
    वो उम्मीद जो कश्ती पर सवार है ..

    मगर
    कहीं उस पार जाने कि तमन्ना
    यूँ ही बिछ न जाए
    इन सागर कि सतहों में..
    वाह ! बहुत खूबसूरत शब्दों का चयन करती हैं आप परी जी ! आपका प्रोफाइल भी आज देखा ! और ये संयोग ही है कि लिखने की आदत मुझे भी हरिभूमि से ही लगी ! लिखते रहिये ! बधाई आपको

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  2. खूबसूरत शब्दों का चयन

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