"माँ"
तुम्हारे आँचल के
साये से बहुत दूर
आ बसी हूँ मैं
कंक्रीट रेत से
बने इस घर में।
किन्तु फिर भी
ताज़ा फूलो से लदे हुए
महकते लॉन में
समंदर की ठंडक देती
इन खिड़कियों में
यहाँ के सुन्दर नज़ारो में
अब वो मिठास कहाँ
जो मायके के मिट्टी के आँगन
और
अशोका के पेड़ की छाया में थी।
सब सुख-साधन के बाद भी
कमी सी है.…बहुत खारापन है।
खलता है तुम्हारा न होना 'माँ'
याद आती हैं
तुम्हारी लोरी..तुम्हारा दुलार
मेरी किलकारियों से
तुम्हारा अंदर तक भीग जाना
कितनी भी बड़ी चोट को
अपने स्पर्श से उड़न-छू कर देना
मेरी जली रोटियों को
बड़े प्रेम से खाना
और जाकर सबसे बखान करना
मेरी गलतियों पे भी
बड़े प्यार से समझाना।
'माँ' तुम्हारा स्नेह तो आत्मस्पर्शी है
पर अब क्या ?
हर गलती को अपने काँधे ही ढोना है
हर पीड़ा को अपने देह पे सहना है
हर उदासी को
मन पे झेलना है अकेले ही।
आंसुओ को आँखों में दबाना है
और हर हाल में मुस्कुराना है।
लापता हो गयी है कहीं
नन्ही 'परी' आपकी
क्या करूँ ?
बेटी से बहु जो बन गयी हूँ। !!
.............................परी ऍम श्लोक
तुम्हारे आँचल के
साये से बहुत दूर
आ बसी हूँ मैं
कंक्रीट रेत से
बने इस घर में।
किन्तु फिर भी
ताज़ा फूलो से लदे हुए
महकते लॉन में
समंदर की ठंडक देती
इन खिड़कियों में
यहाँ के सुन्दर नज़ारो में
अब वो मिठास कहाँ
जो मायके के मिट्टी के आँगन
और
अशोका के पेड़ की छाया में थी।
सब सुख-साधन के बाद भी
कमी सी है.…बहुत खारापन है।
खलता है तुम्हारा न होना 'माँ'
याद आती हैं
तुम्हारी लोरी..तुम्हारा दुलार
मेरी किलकारियों से
तुम्हारा अंदर तक भीग जाना
कितनी भी बड़ी चोट को
अपने स्पर्श से उड़न-छू कर देना
मेरी जली रोटियों को
बड़े प्रेम से खाना
और जाकर सबसे बखान करना
मेरी गलतियों पे भी
बड़े प्यार से समझाना।
'माँ' तुम्हारा स्नेह तो आत्मस्पर्शी है
पर अब क्या ?
हर गलती को अपने काँधे ही ढोना है
हर पीड़ा को अपने देह पे सहना है
हर उदासी को
मन पे झेलना है अकेले ही।
आंसुओ को आँखों में दबाना है
और हर हाल में मुस्कुराना है।
लापता हो गयी है कहीं
नन्ही 'परी' आपकी
क्या करूँ ?
बेटी से बहु जो बन गयी हूँ। !!
.............................परी ऍम श्लोक
ati sundar
ReplyDeleteयाद आती हैं
ReplyDeleteतुम्हारी लोरी..तुम्हारा दुलार
मेरी किलकारियों से
तुम्हारा अंदर तक भीग जाना
कितनी भी बड़ी चोट को
अपने स्पर्श से उड़न-छू कर देना
मेरी जली रोटियों को
बड़े प्रेम से खाना
और जाकर सबसे बखान करना
मेरी गलतियों पे भी
बड़े प्यार से समझाना।
'माँ' तुम्हारा स्नेह तो आत्मस्पर्शी है
पर अब क्या ?
हर गलती को अपने काँधे ही ढोना है
हर पीड़ा को अपने देह पे सहना है
हर उदासी को
मन पे झेलना है अकेले ही।
आंसुओ को आँखों में दबाना है
और हर हाल में मुस्कुराना है।
बहुत ही सुन्दर
माँ का आँचल बहुत बड़ा है,
ReplyDeleteजैसे हो आकाश।
माँ के आँचल में बसता,
सूरज चंदा प्यार।
(आप की रचना सुन्दर )
माँ' तुम्हारा स्नेह तो आत्मस्पर्शी है
ReplyDeleteपर अब क्या ?
हर गलती को अपने काँधे ही ढोना है
हर पीड़ा को अपने देह पे सहना है
सुंदर ।