फूलो पर
चलते हुए भी
चुभता रहा
कांटा सीने में
खिलखिलाते हुए भी
छिपे आहों से बहते
अश्रुधाराओ की श्रृंखलाएं
नहीं टूटी ....
तब से अब तक !
हज़ारो तालियों की
गड़गड़ाहट के बावजूद
खलता रहा
उस अकेले
अनमाने ठोकर की गूंज
ख्याति और ऊँचाई
पाकर भी
गहराता गया
इक अकेला दर्द
जगमगाहट के बाद भी
अकेलेपन का अँधेरा
अंदर बढ़ता ही गया
जिंदगी में सब कुछ
प्राप्त करती गयी
लेकिन ........
तुम्हारी कमी का
असंतोष ..............
मुझमे वक़्त के साथ
नासूर बनता चला गया !!
--------------------परी ऍम 'श्लोक'
चलते हुए भी
चुभता रहा
कांटा सीने में
खिलखिलाते हुए भी
छिपे आहों से बहते
अश्रुधाराओ की श्रृंखलाएं
नहीं टूटी ....
तब से अब तक !
हज़ारो तालियों की
गड़गड़ाहट के बावजूद
खलता रहा
उस अकेले
अनमाने ठोकर की गूंज
ख्याति और ऊँचाई
पाकर भी
गहराता गया
इक अकेला दर्द
जगमगाहट के बाद भी
अकेलेपन का अँधेरा
अंदर बढ़ता ही गया
जिंदगी में सब कुछ
प्राप्त करती गयी
लेकिन ........
तुम्हारी कमी का
असंतोष ..............
मुझमे वक़्त के साथ
नासूर बनता चला गया !!
--------------------परी ऍम 'श्लोक'
बहुत ही मर्मस्पर्शी रचना।
ReplyDeleteअसंतोष का होना कभी कभी स्वाभाविक भी होता है और जीने की वजह भी।
सादर
इस नासूर को अपनी ज़िंदगी का गहना बन जाने दें ! जीना आसान हो जाएगा ! बहुत सुन्दर भावपूर्ण रचना !
ReplyDeleteसाधारणतया जीवन का दूसरा नाम ही असन्तोष है .
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteसाधारणतया ,जीवन का चलते रहना असन्तोष के साथ ही सम्भव है
ReplyDelete