Friday, August 29, 2014

"हर बार"

 
हर बार तुम्हारी यादें अपनी हद तोड़ती हैं
 हर बार इस तूफ़ान की रौ में मैं बह जाती हूँ
 
हर बार मैं दिल की कुण्डी पे ताला जड़ती हूँ
  हर बार बेचैन होकर इसे खुद ही खोल आती हूँ 
 
हर बार रोकती हूँ अपने जज्बात तेरे लिए
हर बार अपने ही तरकीबों से दर्द पाती हूँ
 
हर बार सुबह समझ के तेरी ओर बढ़ती हूँ
हर बार शाम को थकहार के लौट आती हूँ
 
जब तेरे प्यार में भीग जाने की आरज़ू होती हैं
मैं तपती ज़मीन सी इक बूँद को तरस जाती हूँ
 
  हर बार जब अपने आईने से नज़रे मिलाती हूँ
इन आँखों के दरख्तो पर तुझे ही पाती हूँ
 
जैसे ये सारे नज़ारे तेरे हमशक्ल हैं 'श्लोक'
जिधर भी देखूं बस तेरा मेला लगा पाती हूँ
 
बस फिर मेरा कुछ कहाँ रहता हैं हकदारी को
तेरी इक झलक से मैं रूह तक लुट जाती हूँ
 
 
____________परी ऍम 'श्लोक'

2 comments:

  1. हर बार सुबह समझ के तेरी ओर बढ़ती हूँ
    हर बार शाम को थकहार के लौट आती हूँ

    जब तेरे प्यार में भीग जाने की आरज़ू होती हैं
    मैं तपती ज़मीन सी इक बूँद को तरस जाती हूँ
    सुन्दर पंक्तियाँ

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  2. हर बार सुबह समझ के तेरी ओर बढ़ती हूँ
    हर बार शाम को थकहार के लौट आती हूँ ..
    प्रेम है तो कैसी हार ... रोज़ नयी जद्दोजेहद ...

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