Thursday, July 10, 2014

"अचानक"

मन को 
गुदगुदाती शरारते
पता नहीं चला
कब?
अचानक
धुँआ हो गयी
जिंदगी के गुलशन में
जवानी के फूल
खिल गए
जिम्मेदारियों के
पुल पे कदम रखते ही
समझ कि 
ऊंचाइयों को छूते हुए
गहराइयो में डालती गयी
कई मासूम चाहते
काबिलियत का इम्तिहान
हर कदम चलता रहा
शाम मेहनत में
रात चिंता में बिसर गयी
ऐसा लग रहा है मानो
वो अरमानो कि कस्ती मैंने
बचपन में बारिश के पानी में छोड़ी थी
वो मुझसे बहुत दूर
चली गयी है
खुद ही सजाती हूँ सपने
और चढ़ाती हूँ
खुद ही उनकी बलि
सबके होने का
तो भलीभांति
आभास है मुझे
शहद ख़ुशी का
सबको बांटती चली गयी 
किन्तु इस तमाम
हलचल में
खुद को ही कहीं भूल गयी हूँ !!!

----------------परी ऍम 'श्लोक'

5 comments:

  1. वाह।। सुन्दर रचना।

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  2. कल 13/जुलाई /2014 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
    धन्यवाद !

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  3. बेहतरीन
    बहुत सुन्दर रचना

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  4. ऐसा ही होता हैं .. इस मारामारी में खुद की सुध रह भी कैसे सकती है ...
    गहरे भाव ...

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  5. ​बेहतरीन रचना

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