Wednesday, October 8, 2014

अबके बहुत दिन गुजरे ....!!

सुनो !

अबके बहुत दिन गुजरे
तुमसे बात नहीं हुई
जाने खफा हो
या फिर
कहीं उलझे हो और.....

इरादा बेवफाई का तो नहीं ?

उफ्फ देखा!
मौकापरस्त शक भी
दरवाजे पर आकर
दस्तक देने लगा है
मालूम नहीं कि
कहाँ-कहाँ भटक आतें हैं
पैदल ख्याल भी मेरे ...
सकून का कहीं पर
नाम-ओ-निशान तक नहीं

और तुम्हारी याद
दौड़-दौड़ कर
मन का पल्लू पकड़ती है
पहाड़ जैसे हो गए हैं पहर
और मैं चींटी सी
चढ़-चढ़ ढुलक जाती हूँ

सुन लो ....
बहुत हुआ
जिद्द का जिद्दी सिलसिला
अब या तो चले आओ
या फिर चले जाओ
ऐसे तो मुश्किल न करो तुम
जिंदगी मेरी ….
न डूब सकूँ न पार लगूँ
इस तरह अटकी रहे
तलातुम में कश्ती मेरी !
 
________
©परी ऍम श्लोक

17 comments:

  1. बहतरीन जज्बाती पंक्तियाँ

    ReplyDelete
  2. आभार फोँट बढ़ाने के लिये आराम से पढा‌ जा रहा है । सुंदर रचना ।

    ReplyDelete
  3. बहुत सुंदर एवं भावपूर्ण.

    ReplyDelete
  4. वाह ! क्या बात है ! बड़ी खूबी के साथ अपनी हर शिकायत बयान कर दी है ! बेहतरीन रचना !

    ReplyDelete
  5. और तुम्हारी याद
    दौड़-दौड़ कर
    मन का पल्लू पकड़ती है
    पहाड़ जैसे हो गए हैं पहर
    और मैं चींटी सी
    चढ़-चढ़ ढुलक जाती हूँ ------- मन के भीतर जमी प्रेम की परतों और अनुभूतियों को उजागर करती प्रेम की मनभावन रचना ---- वाह बहुत सुंदर ---

    शरद का चाँद -------

    ReplyDelete
  6. Utkrusht. . .bhawnao ko bahut hi satik tarike se shabdo mein peeroya hai. Feels proud to be the reader of your work. Truly wonderful. ..Baba bless!!!

    ReplyDelete
  7. और तुम्हारी याद
    दौड़-दौड़ कर
    मन का पल्लू पकड़ती है....

    ये कमबख्त याद कभी पीछा नहीं छोड़ती....बहुत सुन्दर और प्रभावी रचना

    ReplyDelete
  8. वाह !! बेहतरीन....अहसास को रंग बहुत ही उम्दा शब्दों से दिया आपने ....कविता भावों से पूर्ण.....कितने सुंदर पञ्च दिए हैं आपने हर मोड़ पर...बहुत बहुत बधाई इस सुन्दर प्रस्तुति पर परी जी !!

    ReplyDelete
  9. परवीन जी आपकी आज की ये प्रस्तुती पढ़ कर जाने क्यूँ महसूस हुआ की आपकी प्रोफाईल पर कुछ देर रुकूँ और इस रचना की कशिश ने मुझे आपके प्रोफाई पर ला खड़ा किया , जाने क्यूँ इक उत्सुकता सी हुई सच में ये हुनर की शक्सियत के बारे में जाना जाए...की किस तरह इस लेखक की उत्पत्ति हुई | आपकी कलम का यूँ निरंतर चलना सच में बधाई की पात्र है |आपकी परवाज़ यूँ ही बनी रहे खुदा से इल्तजा करता हूँ !...आज आपकी बहुत सी पातियाँ नज़र से गुजरीं सच में एक अच्छे हुनर की मालिक हैं आप ! आपके अहसास ..आम अहसास नहीं हैं.....हुनर को बाकायदा कायम रखियेगा....अगर इहें किसी ग़ज़ल में पिरो सकें तो सोने में सुहागा रहेगा....थोड़ी म्हणत तो है पर मुझे उम्मीद है आप सच में कर सकेंगी..........

    छिपा कर दर्द अपना अक्सर मुस्कराती रही,.............परवीन
    बेरहम है ये दुनिया वो धीरे- धीरे बताती रही |............हर्ष महाजन


    साभार

    हर्ष महाजन

    ReplyDelete
  10. कल 10/अक्तूबर/2014 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
    धन्यवाद !

    ReplyDelete
  11. वाह परी जी कमाल की भाव विभोर करने वाली रचना है। बधाई हो इतनी सुन्दर रचना के लिए। स्वयं शून्य

    ReplyDelete
  12. सीडी डॉ सीडी प्यार जब एक मुकाम तक पहुँचता है तो बहुत दिनों की दूरियां बेवफाई सी लगने लगती है फिर फितूर दिलोदिमाग इधर उधर घुमने लगता है और अनहोनी का भ्रम पल जाता है
    कभी प्यार आता है कभी शिकायतें ....
    ये रचना भी ठीक ऐसी ही किसी स्थिति की है.....कमाल की अनुभूति ...मनभावन

    कृपया मेरे ब्लॉग तक भी आयें, अच्छा लगे तो ज्वाइन भी कीजिये सब थे उसकी मौत पर (ग़जल 2)

    ReplyDelete
  13. बहुत सहज-स्वाभाविक -सरसऔर सुन्दर !

    ReplyDelete
  14. प्यार भरी सुन्दर सहज जज्बात!

    ReplyDelete
  15. उफ्फ देखा!
    मौकापरस्त शक भी
    दरवाजे पर आकर
    दस्तक देने लगा है
    मालूम नहीं कि
    कहाँ-कहाँ भटक आतें हैं
    पैदल ख्याल भी मेरे ...
    सकून का कहीं पर
    नाम-ओ-निशान तक नहीं
    सत्य ! ऐसा होता है , कम्युनिकेशन गैप शक बढ़ाता है ! व्यवहारिक शब्द

    ReplyDelete
  16. अहसास से लबालब व्यथा को अनेकों आयाम देती रचना

    मिज़ाज़ों में यास (1)आ गई है हमारे
    न मरनें ग़म है ,न जीने की शादी (2)

    यास ---निराशा , शादी --ख़ुशी

    बाहर हूँ अतएव लगातार टिप्पणी नहीं कर पा रही हूँ

    ReplyDelete

मेरे ब्लॉग पर आपके आगमन का स्वागत ... आपकी टिप्पणी मेरे लिए मार्गदर्शक व उत्साहवर्धक है आपसे अनुरोध है रचना पढ़ने के उपरान्त आप अपनी टिप्पणी दे किन्तु पूरी ईमानदारी और निष्पक्षता के साथ..आभार !!