Thursday, February 20, 2014

"अल्फ़ाज़"

1) मेरी कहानी कि पंक्तियाँ खुद से यूँ हैरान थी
कुछ शब्द आंसू से फीके हो गए कुछ लहू से लाल थी
कलम को तोड़ती रही दर्द कि आह ! लगातार
एहसास के पन्ने खुशियो से इस कदर बेज़ार थी
किरदार था कमज़ोर आग़ाज़ तो कर लिया लेकिन
अपनी कहानी के अंजाम से खुद ही शर्मसार थी


3) कर गया था बदहवासी में इक फैसला वो शक्स
आज हर फैसले से वो चोट खाये जा रहा है
वो फूल जो अँधेरे से थक के उजालो कि चाह कर बैठा था
उसको तो चाँद के ठंडा उजाला भी जलाये जा रहा है


4) चिरागो तले जब भी अँधेरा मिले तो
समझ लेना मुझ बिन अधूरे रहे तुम



5) मेरे नगमे तुम्हारी याद में कुछ यूँ सजाये हैं
 अतिशो के गाँव से जाकर जुगनुओ को लाये हैं
इंद्रधनुष के रंगो से लिखा हैं  तुम्हारा नाम
मोहोब्बत -ए-जस्बात से गीतो के घुन बनाये है


6) ए गम तेरे इरादे बहुत खूंखार है ना देख मुझसे न उलझ
वरना यूँ मसलूँगी कि तू ख़ाक में मिल जाएगा !


7) कोई तो नज़र उतारो मेरी जिंदगी की,,,
बेहद खुबसूरत है और यहाँ निगाहें फ़कीर है सबकि !!



8) ये जिंदगी का मसला खुद-बा-खुद सुलझा लूँगी ,,,





बदलियाँ हो गम की फिर भी मुस्कुरा लूँगी ,,,
मेरा वजूद तुझमे सिमटा हुआ है इस कदर,,
तू मिल गया मुझे,,,, तो मुकम्मल जहान पा लूँगी !!
 
 
9) इससे पहले तो बारिश ने हमें यूँ भिगोया था,,,
जरा देखो ना!
ये बूंदे कैसे गुस्ताखियों पे उतर आई हैं,,,,


10) हालात वैसे ही हैं मगर किरदार बदल गए हैं
आस्मां अपनी जगह से हिला भी नहीं


जाने कब ? ये दर-ओ-दीवार बदल गए हैं


11)  मेरी अपनी मेरी हमदर्द मेरी हमराज़ भी है,
ये शायरी, ग़ज़ल, कहानी, कविता मेरी आवाज़ भी हैं
मुझे नहीं चाहिए वफ़ा कायनात के बाशिंदो का
जिंदगी का अंजाम भी लव्ज़ हैं और यही आग़ाज़ भी हैं




12) कहीं बसेरा न मिले गर तो मलाल न रखना मेरे दोस्त 
जहाँ तेरा आशियाना होगा वहाँ इक शाम तुझे पहुंचा देगी !!



13) मैं सूरज से मिलाने निकली हूँ आँख
    मगर उम्र थोड़ी हैं और फ़ासला लम्बा !!


14) मुझपे क्या गुजारी क्या जानोगे मेरे मोहसिन
बस इतना जान लो मर रहे है हम जिंदगी के हाथो!!

15) मैं उस मगरूर से शिकवा भी क्या करती 'श्लोक'
हर इल्जाम मेरे सर था मोहोब्बत से बेवफाई तक

16) बचा न कुछ भी कहने को फिर ख़ामोशी के अलावा
उसने नज़र मिला के बोला कि तुम मेरी जिंदगी हो श्लोक

17) "सब कुछ अजनबी-अजनबी सा लग रहा है 'श्लोक' .....
यूँ तो तिलासा सबने दिया कि वो इस शहर में मेरे अपने है

18) बड़ा अजीब रहा तकदीर का सितम मुझपे 'श्लोक'
सही का नकाब ओढ़ा हुआ था हर नामाकूल फैसलो ने

19) वहीँ उसी सफ़र में जहाँ तुम मुझे मिलोगे
किसी मोड़ पे ठहर कर तेरा इंतज़ार करके देखते हैं
मोहोब्बत फूल गुलाब से हर कोई करता है
आज चलो हम भी कांटो से प्यार करके देखते हैं
20) हम सिर्फ टूटे ही नहीं टूट कर बिखरते चले गए
हम दर्द कि हर इम्तिहान से गुजरते चले गए
सोचा था तुम्हे बयां नही करेंगे हाल-ए-तड़प अपना
मगर आंसू आँखो कि दहलीज़ पार करते चले गए

शायरा : परी ऍम श्लोक

"कहूँ कि कितना खुश हूँ मै"


कहूँ कि कितना खुश हूँ  मै मेरी आदाओ से पढ़ लो
कि आज कल कुछ भी बयान करने को अल्फाज़ नहीं मिलते

उनको जता पाती मोहोब्बत मेरी चाहती है क्या-क्या
नजाने क्यूँ दिल के हालात से लबो के इज़हार नहीं मिलते

करती हूँ बाते बहकी-बहकी नजाने किस खुमार में रहती हूँ
की पहले  के ‘श्लोक’ से अब मेरे मिजाज़ नहीं मिलते,,,,

तोड़ती जा रही हूँ बंदिशे.. इस मतलबी समाज की,,,
जो मुझे रोक ले राह-ए-दरमियाँ वो दीवार नहीं मिलते…

मै लुटाने लगी हूँ उनपे रातो की नींदे आखिर कुछ तो है वजह
सच कहूँ तो इंसानी बस्ती में फ़रिश्ते-ए- किरदार नहीं मिलते


ग़ज़लकार  : परी ऍम श्लोक

"गर्दिश"






विकासशील ???

विकासशील देश 'भारत'
पढ़ा था मैंने ये तो
जब मैं छोटी थी
और बड़े होते होते
मैंने देश के कई कोने में
खासकर महानगरो में
विकास कैसे हुआ? ये भी देखा
परन्तु ऐसे ही
विकास कि तलब मुझे
मेरे शहर मेरे गाँव में भी देखनी थी
बहुत दिनों बाद मैं उत्तर प्रदेश गयी
और वहाँ विकास का दृश्य देखा
जानते हो क्या ?
विकास पिछड़ेपन का,
विकास प्रधान से लेकर नेताओ तक
केवल अपनी जेब को भरने का
विकास लालच का, फर्जीवाड़े का
विकास हिंसात्मक घटनाओ का,
विकास गुंडागर्दी और दादागिरी का
मानसिकता आज भी पिछड़ी सी है
वहाँ अपराध एकदम मूक रहता है
केवल वहाँ वो सड़के दुरुस्त हैं
जहाँ किसी नेता का घर है या रास्ता है
साकिस्त और धूल से लतपथ है
मेरे घर कि और जाने वाला रास्ता आज भी
बत्ती के लाइट पोल मुझे उम्मीद है
कि आने वाले कई पुश्तो तक भी
कोई देख नहीं पायेगा
और
कई ऐसे मामलो का विकास
जिसका उस सफ़र में शायद !
कहीं अनुमान लगा पाने में चूक रही...
चिंता कुछ ही पल में बढ़ गयी
और जाने क्यूँ ?
इक तकलीफ ह्रदय में मस्तिष्क में
आर-पार होती रही नम हो गए नैन
इतना अच्छा विकास
हा हा हा हा हा हा हा.......
क्या कहीं किसी और जगह
ऐसा विकास हुआ होगा ?
जैसा कि मेरे राज्य का हुआ है !!!


रचनाकार : परी ऍम 'श्लोक'

"समझौता"

 
जिंदगी कि
जुबान पे इक पड़ाव पर
समझौता आया...
और मैं चौक कर
कसक-मसक करने लगी
रास्ते सभी बंद थे
वो मोड़ ही शेष
मुश्किल दौर था बेहद
सबने कहा दुर्भाग्यशाली है
मुझे भी लगा सत्य ही है
सबके पास कई रास्ते थे
लेकिन काबिलियत नहीं
मेरे पास काबिलियत थी
मगर मनचाहा रास्ता नहीं 
रुकना नहीं था मुझे
क्यूंकि कायर नहीं हूँ मैं
लेकिन चलने का कोई अर्थ भी नहीं
जीते-जीते जिंदगी को
समझौते करते हुए इक उम्र हो गयी
ढोते-ढोते कमर झुक गयी
झुरियों ने अपनी जगह बना ली
गुलाबी चहरे पर मेरे.
पूरे सफ़र में 
ख्वाब हकीकत से टकरा के
टूटते बिखरते रहे
अपनों कि मनमानी के अलाव में
झोकते रहे हर अरमान
ज़बरन कुछ भी करने का साहस
आज भी लुटा-पुता कहीं पड़ा है
समझौते ने आज भी
मेरा आँचल नहीं छोड़ा
शायद ! इसका साथ जीवन कि
चरम और अंतिम सीमा तक है !!
 
 
 रचनाकार : परी ऍम श्लोक


जानते हुए भी

"पराया धन"


Wednesday, February 19, 2014

" तुम कहो या चुप रहो "

तुम्हारी आवाज़
मेरे कानो से गुजरती हुई
मन के कोने-कोने को
गुदगुदा देती है
तुम्हारी हसी
बुझे हुए आशाओ के दीप
तूफ़ान में भी जला देती है
तुम्हारे ख्वाब
श्याह रातो में
नींदो को वजह देते हैं
तुम्हारी ज़ुस्तज़ू
किरच में भी फूल खिला देते हैं
तुम तलब हो, एहसास हो,
धड़कन हो, जज्बात हो
तुम्हारी याद वक़्त बेवक़्त
जब भी आती है
घड़ी कि सुई घुमा देती हैं

तुम कहो या चुप रहो
मगर
तुम्हारी ख़ामोशी है जो
मुझे सब कुछ नज़र से बता देती है !!!


रचनाकार : परी ऍम श्लोक

पता नहीं क्यूँ???


क्यूँ नहीं होता
हमारी जिंदगी में
वो जो हम चाहते हैं?
क्यूँ हम क्षमता होने के बावज़ूद भी
गुलाम से ज्यादा कुछ नहीं ?
जो प्रकृति, किस्मत, फैसले, भावनाएं, रिश्ते
इन सब के तराजुओं में
तुलता ही रहता है आय दिन आदमी !
कम से कम वो जो बुरा न हो
थोड़ा अच्छा हो मन- मुताबिक
उसे तो मुकाम मिलना चाहिए न ?
क्यूँ कभी कभार हम खुद को भी
अपने वश में नहीं कर पाते?
क्यूँ हमेशा इंसान अंदर के
खायी कि गहराई रहस्यमयी होती है ?
क्यूँ सपने से
साक्षातकार नहीं किया जा सकता?
क्यूँ जीवन को अपने मुताबिक
रोका या चलाया नहीं जा सकता
जबकि हर सांस कि पहरी मैं हूँ?
पंछियो कि तरह धरती-आसमान पे
मेरा अधिपत्व क्यूँ नहीं ?
जबकि उनसे ज्यादा काबिल हुँ मैं !
गलत का रूपांतरण कैसे किया जाता है?
सही का आधार क्या है आत्मा या समाज है ?
सच हर कोई अपने लहज़े में बोलता है !
फिर भी वो सच कैसे होता है ?
क्या किसी ने भगवान् खुद कभी देखा है ?
फिर कैसे कहते हैं ?
कि भगवान् सब देखता है ?
पता नहीं जिज्ञासा क्या है ? कितनी है ?
मगर
सोचती हूँ मैं भी
अक्सर ऐसी ही कुछ बातें
बादलो में पैर मारने लगती हूँ
जानते हुए भी
कि कद छोटा है सवाल अज़ीब
और इन प्रश्नो के सबके पास
बेबुनियाद उत्तर है लेकिन फिर भी !!!

रचनाकार : परी ऍम श्लोक

"आने से पहले"

हम सावन नहीं थे.....
मगर हरे भरे हो गए थे.......
बादल नहीं थे.........
मगर बरस पड़े थे........
चाँद नहीं थे ...........
लेकिन अज़ब नूर सा छाया था.....
जैसे पतझड़ के आँगन में
बरसो बाद बहार आया था
सूरज नहीं थे
मगर जल पड़े थे
ताल थे सूखे चट्टाये से 
मगर सागर बन गए थे
कांटे से फूल बन गए थे
नीम से शहद हो चले थे
      हाँ ! हाँ ! हाँ !
अगर सच कहीं कोई है
तो सिर्फ यही है...

तुम्हारे आने से पहले तक
कुछ और थे हम
लेकिन
तुम्हारे जाने के बाद
कुछ और बन गए थे !!! 
 
 
रचनाकार : परी ऍम श्लोक

"संघर्ष"

विचलित हो गयी हूँ
कुछ ऐसे
कि समझ ही नहीं पा रही
ये जीवन का
रुका हुआ पहलु है
या
फिर किसी बवंडर से 
घिरी हूँ मैं
आगे कई रंगीन परदे हैं
जबकि अब मुझे
केवल पारदर्शिता
और
सादगी अच्छी लगती है
इन्हे उठा कर देखने कि 
रत्ती भर भी इच्छा नहीं 
पीछे से निरंतर
धकेला जा रहा है मुझे
दाये-बाये से कोई टेक नहीं  
मैं ठहरना चाहती हूँ
लेकिन समय नहीं
सूरज उसी प्रकार निकलता है
और डूब जाता है 
उम्मीद भी नहीं है कोई
केवल व्यथा बची है
जिसकी गूढता का कोई भी
अनुमान नहीं लगा सकता
अज़ब शीत युद्ध है
दोनों तरफ से दबोचे जा रहा है
मेरी शक्ति क्षीण होकर
कहीं दूर जा बैठी है
आभास होने लगा है
कि शायद!
अब  हार निश्चित है !!

रचनाकार : परी ऍम श्लोक

Friday, February 14, 2014

" चलो न साथी साथ मेरे "



 
चलो न साथी साथ मेरे
तेरे संग ही सफ़र खूबसूरत है
तुझे भी इतनी तो होगी नहीं
मुझे जितनी तेरी जरुरत है
ये दूरी जुदाई को कहदो अलविदा
मिटा दो जो भी शिकायत है 

चलो न साथी साथ मेरे....
कुछ पल कि ही साँसों को मोहलत है
 
तेरी कहानी तेरे गीत ही
मेरे लव्जों कि ये ही सूरत है
दिल के शहर में हुकूमत है जिसकी
वो तेरे वज़ूद कि मूरत है

चलो न साथी साथ मेरे.....
 
घटाओ को कहदो बरस जाए न
बूंदे ही तो इनकी सीरत हैं
हमें अपनी चाहत में भिगो लो न तुम 
आज हमको बहुत ही फुरसत है
 
चलो न साथी साथ मेरे.....
जिंदगी की तुही तू जियारत है !!
 
 
Written By : परी ऍम श्लोक

Thursday, February 13, 2014

एहसास को जीने कि......


ज्ञात है भौरे को
कमल कि पंखुड़ियों के
साये में आते ही
जीवन मुक्त हो जाएगा
किन्तु तालाब में
हरियाई काई के बीच
जन्मे गुलाबी पत्तियो के
इशारे पर पहुँच जाता है
उसके पास बिना किसी
भय और टाल-मटोल के..
मानसून में चींटी पंख लगा
चिराग कि लौ के
इर्द-गिर्द चक्कर काटने लगती है
जबकि अनजान नहीं होती
वो इस सत्य से कि
इस जलन में झुलस के राख के ढेर में
तब्दील होने के अलावा
इस प्रेम का कोई अर्थ नहीं
किन्तु उससे अधिक गहरा
अर्थ है उस भाव में
जो वो अंतिम बार जियेगा 
धरती भी नहीं होती बेखबर कि
आकाश को आलिंगन तो दूर
कभी छू भी न पायेगी
बस निहारती रहेगी उसे दूर से
कभी उदास होगी तो बादल
छा लेगा उसे और बरस पड़ेगा
किन्तु उसकी प्रत्येक बूँद
उससे दूर होने कि पीड़ा व्यक्त करेगी
और साथ ही उसे तृप्त कर जायेगी
अथाह असमाप्त अनुराग से.. 
सरहदे नहीं देखता बेपरवाह है चाहत
हर पीड़ा झेल सकता है....
 
निसंदेह प्रेम सर्वोच्च है और
इसकी महानता को व्यक्त
शब्दो में नहीं किया जा सकता
उसके लिए जरुरत है इस एहसास को जीने कि!! 

 
 रचनाकार : परी ऍम श्लोक

 on the occasion of Valentine's day

!! फैसले !!


फैसले जब
सही नहीं होते
तब जाहिर सी बात है
कि वो गलत होते हैं

और
जब वो सही होते हैं
तो उसका सम्पूर्ण श्रेय
हमें जाता है...

किन्तु
जब कभी भी वो
गलत हो जाते हैं
तो अक्सर उसकी वजह
कोई और ही होता हैं

जानते हैं क्यूँ ?

क्यूंकि इंसान के काँधे
इतने मज़बूत नहीं हुए
कि वो उठा सके
अपनी हार या खामी का बोझ
अपने ही नाज़ुक कांधो पर !!



रचनाकार : परी ऍम श्लोक

 

Wednesday, February 12, 2014

डर लगता है..........

इक खूबसूरत एहसास था
मगर अब वो जस्बात वो एहसास
बद से बदसूरत हो चला था बहुत
जो दो तरफ से उठा था
पलक झपकते किसी
कोने में जा गिरा ओंधे मुँह 
स्नेह भावना क्रूरता कि
चरम सीमा पर पहुँच चुका था
प्रताड़ना मस्तिष्क में
सुराख कर चुकी थी
आत्मा पे तेज़ाब डाल कर
झुलसा दिया गया था
खौफनाक साये में ज़ी रहा था
अब वो अत्यंत सुंदर भाव 'प्यार'
जो दफ़न हो गया
आज-कल के ज्वालामुखी में

जिसके नाम से अब
बेहिसाब डर लगता है मुझे !!!


रचनाकार : परी ऍम श्लोक

"मायूस"

जिंदगी मायूस सी जिन्दा है
बेमन, बेरंग, बदहवास बनके
जिंदगी को जिंदगी कि ज़रूरत ही नहीं
लेकिन ज़रुरतो को जिंदगी चाहिए
किसी भी कीमत पे
क्यूंकि उसे पूरा जो होना है
मस्तिष्क अशांत है दिल बेचैन
वक़्त के साथ ये ठहरता नही
बल्कि तेजी से बढ़ता ही जा रहा है
बड़ा भारी बन पड़ा है रण-क्षेत्र
हर आदमी के हाथ कटार है
और हम प्यार लेकर उतरे है 
परिणाम भलीभांति ज्ञात है मुझे
परन्तु संवेदनाएं मासूम है अनपढ़ है
इनको समझा पाना जिंदगी कि
आखिरी रात तक भी असम्भव है
अज़ीब जंग है ये जीवन का
जिसमे हारी तो हार है
और जीत गयी तो भी हार है
मैं चाहती कुछ नहीं न जीत न हार
बस शांति कि एकमात्र आशा है
किन्तु शांति जीवन कि रण से
कोई वास्ता ही नही रखती
अब मैं भी देखने कि इच्छुक हूँ
कि आखिरकार क्या अंत है इस सफ़र का?
बेचैनियाँ, बेक़रारियां, पागलपन
या
फिर है कहीं कोई कोना जहाँ हैं
मानसिक शांति के आसार ?!!

रचनाकार : परी ऍम श्लोक

"तलाक"


तुम फिर से स्वयं पे
मेरे दुराचरण से ग्रस्त हुए हो
ऐसी ही कुछ कहानी का 
जिल्द चढ़ाकर सुरक्षित कर लोगो
फिर कोई साहस दोबारा न करेगा
वास्तविक वजह जानने कि
खोदने कि बीते पल कि मिट्टी 
ओर करे भी क्यूँ?
लड़का अच्छा कमाता है,
अच्छा दिखता हैं, 

इससे ज्यादा एक माँ-बाप को
बेटी के सुखी जीवन के लिए
चाहिए क्या होता है?

किन्तु इसके बाद से आरम्भ हो जाएगा
प्रतिदिन मेरी ठिठोली उड़ाने का
एक नवीन अध्याय
इस अध्याय के कठिन प्रश्नो के उत्तर
गाड़ती जाएंगी मुझे
चिंता कि कब्र में
खींच देंगी लकीर पेशानी पर..

इसके बाद तुम भले ही
सुखमय हो जाओ
किन्तु समाज का ज्वलित वाक्य-वाण
मुझ ठूँठ को जला के ख़ाक कर देगा!!

रचनाकार : परी ऍम श्लोक


((Note : मैं शादी जैसे सामाजिक बंधन को बहुत सम्मान देती हूँ लेकिन इसके लिए अफ़सोस भी होता है जब कोई बेटी तलाक के बाद लोगो के सवाल से जूझ रही होती है बेशक इस फैसले से फर्क दोनों कि पक्षो को पड़ता हो मगर हमारा समाज अक्सर एक़ ही मन बनाये बैठा रहता है कुछ न कुछ कमी लड़की में ही होगी खैर क्या किया जा सकता है अब मानसिकता का))

Tuesday, February 11, 2014

"रोजाना देखती हूँ"


रोजाना देखती हूँ
डूबता हुई प्रेम नाव
असमंजस कि समुंद्री लहर में
क्षुब्ध सतहों कि चौकसी
उछाल देती है तेज़ी से
अपनी पड़ाव कि ओर आता देख
वैभव का सुनहरा दर्पण
टूट जाता है
अनेच्छिकता के बावज़ूद भी
संयोग के बट्टे से टकरा कर
बीनती रहती हूँ
उजाड़ मोके पर भी
रुई को लपेट कर
उम्मीद कि मोहक शाल
जीने कि कोशिश करती हूँ
इस हलाहल के उपरांत भी...
पतझड़ कि पीड़ादेह अवस्था में
झाड़ती हुई हैं पात कि भांति
गीले होंठो कि मुस्कराहट को
औऱ कई लकीरो में गढ़ जाती है
कुंठा माथे कि सपाट परत
विडम्बना घेर लेती हैं
किन्तु विश्वास काँधे पर लादे
पार करवाती रहती है
घायल करते झाड़ो से बीच से
कुछ खुरेचो के बाद भी
मरने नही देती मेरे अंदर कि
सबसे सुंदर भाव को
जो मुझे भिन्न करता है
हर तारतम्य से!!


रचनाकार : परी ऍम श्लोक

पैदल जस्बात......





 
 





रचनाकार : परी ऍम 'श्लोक'

"माटी है देह"


माटी है सबका देह सखी 
माटी मा मिल जाना है
राख बन पानी संग बहना
कब्र में पड़े-पड़े गल जाना है
जिस पल पड़ी मैं अचेत सखी
इकहरा ही रुक्सत हो जाना है
अंत यही लिखा है सबके जनम का
फिर क्या खोना क्या पाना है
माटी से ज्यादा सखी हमको
अपना कर्म शोभायमान बनाना है
ये रूप रंग का क्या कहना
इक दिन झुर्री पड़ जाना है
हमसे मिलने का ठौर सखी
मन मेल का घरुही ठिकाना है
देह पाकर भी कुछ न पायो
जो प्रेम का शस्त्र जंगाना है
किस्मत से ही मिले भाव ये
खोज-खरीद के भी न पाना है
झूठ के सांचे में ढले सब जन
नेकी का गवाच गयो आशियाना है
 


रचनाकार : परी ऍम श्लोक
 

"बस तुम हो"

ले चलो हमें इस जहान से दूर कहीं
जहां तुम हो बस तुम हो और तुम हो

इस जामने के रंज-ओ-गम के पार कहीं
जहाँ प्यार हो सिर्फ चाह हो बस इश्क़ हो

तुमसे अच्छा भी क्या है? तमाम कायनात में
तुम्ही जन्नत हो, खुदा हो, मेरे मोहसिन हो

भरते हैं आंहे जाग कर सारी रात अब हम
तुम्ही आरज़ू हो, ख्वाब हो, वजह-ए-मुतमइन हो

हर अंदाज़ जिंदगी का निखर के नूर हो जाए
अगर आइना तुम, तस्वीर तुम और दीद तुम हो


ग़ज़लकार : परी ऍम 'श्लोक'

!! उसकी जुबां पे मेरा नाम आने दो !!

रुको ज़रा जिंदगी से जवाब आने दो
नींद में हूँ मुझे भी ख्वाब आने दो

लहरा उठेगा खामोश ये जंगल भी
ज़ीस्त हवाओ का पैगाम आने दो

फ़िक्र लिए फिर रहा है तस्सवुर मेरा
बेचैनियों को ज़रा आराम आने दो

यकीन है कि वो घर लौट आएंगे
दिन ढलने दो ज़रा शाम आने दो

नशे में होंगे तो कुछ बोल पाये शायद हम  
इन हाथो में भी जाम आने दो

लिखूं तो लहूँ उतर जाए हर्फ़ की शक्ल में
कलम कि नोक में दम-ए-तलवार आने दो

बेपरवाह रहता है शिकवे थमा के मुझको वो 
उसके सर पे भी इल्जाम आने दो

वो रोये हमें न पाकर किसी भी जर्रे में
सिला-ए-इश्क़ को इतना काम आने दो

बुझी साँसों को भी सकूं आ जाएगा 
बस उसकी जुबां पे मेरा नाम आने दो


ग़ज़लकार : परी ऍम 'श्लोक'

Monday, February 10, 2014

"यूँ ही"



तुम्हे याद करने के बाद मेरे पास कुछ नही बचता
सिवाय
तुम्हे पाने से ज्यादा ख़ुशी और खोने से ज्यादा गम के !!


Written By : परी ऍम श्लोक

तुम्हारे होने से...........................!!!


अक्सर तेरी यादो में उलझ के सोचती हूँ मैं
जिंदगी औऱ कितनी हसीन हो सकती थी तुम्हारे होने से
सुबह-ओ-शाम कितनी संगीन हो सकती थी तुम्हारे होने से
अगर पैदा न होते दरमियान अपने ये तवील से फासले
मत पूछ रोशनाई कितनी रोमानी हो सकती थी तुम्हारे होने से
मौसम ये बहारे, ये बेचैन करती बारिश, ये झूलते सावन
औऱ कितनी महजबीन हो सकती थी तुम्हारे होने से
ये सफ़र जो तनहा अब मुझसे काटे काटा नहीं जाता
मंज़िल कितनी बेहतरीन हो सकती थी तुम्हारे होने से
खालीपन जो भर गया है तुझमें मुझमें औऱ कायनात में
पूरी होने के खातिर बेसबर हो सकती थी तुम्हारे होने से
बरसात जो अब केवल रेत बहा कर ले जाती हैं साथ अपने
मुझे जब्त तक भिगो सकती थी तुम्हारे होने से
जिस जगह पायी है मैंने अक्सर वीरानिया औऱ सन्नाटे
वो जगह महफ़िल भी हो सकती थी तुम्हारे होने से
तुम्हारी बाहों के सहारे जो मिले होते हमें 'श्लोक'
ज़मीन ये जन्नत भी हो सकती थी तुम्हारे होने से ....

मगर खुदा को शायद मज़ूर कुछ औऱ था
तेरा इल्तिफात कहीं ठहरा था औऱ मेरा नसीब कोई ओर था
अदा में मेरे भी नहीं थी फुसूंकारी हालात पे न कोई ज़ोर था
कहाँ से लाती चैन औऱ करार तलाश कर अपना
दिल भी झुका था तेरी तरफ हुनर-ए-दीदावर भी तेरी ओर था
अब जिंदगी भी वफ़ा करती नहीं मौत का भी कब कोई ठौर था

अक्सर तेरी यादो में उलझ के सोचती हूँ मैं
कि शायद खुदा को मंज़ूर ही कुछ ओर था !!!


रचनाकार : परी ऍम "श्लोक"


"शोषित हूँ पुरुषार्थ से"

शोषित हूँ पुरुषार्थ से
श्रापित हूँ पितृ दोष युक्त समाज से
शोषक निर्भयिता से जीता है
जीती हूँ मैं पीड़ा औऱ संताप में
घर में रावण, बाहर दुर्योधन
अंदर भी छीले ही जाना
बाहर भी नोचे जाना
नारी का बेच खरीद करो
मानवता को शर्मसार औऱ भयभीत करो
मैं नहीं हूँ कोई समान
फिर क्यूँ होता है इतना अपमान?
कैसी कैसी छेड़खानी औऱ भद्दे व्यंग
छेड़ देते हैं भीतर इक जंग
आँख पनीली हो या लाल
दर्द वेदना अपना हाल
क्यूँ ह्रदय दिया इतना भावुक
मोह माया में जा फसी है जान
सहन मेरी मारे चीत्कार
सहती है तू क्यूँ निरपराध
धमका देती हूँ उसको भी मैं
कि मैं तो अबला नारी हूँ
करम,दुर्भाग्य,देह, रूप के कारण
हीन समाज कि सोच से हारी हूँ
मुझमे क्षमता देख सागर जैसे
लोग तोड़ देते हैं गागर जैसे
भेट चढ़ु अपनों के नाम पर
दाग लगे जो उनके दामन पर

मेरा दायरा नियत कर दिया
जीवन रच डाला जैसे बेचारा है
मैं ही कुल कि मर्यादा हूँ
औऱ मेरा मान ही हारा है


रचनाकार : परी ऍम 'श्लोक'
 

Sunday, February 9, 2014

कहाँ है सत्य ???

सत्य कहने को सत्य है
किन्तु क्या प्रस्तुत किया हुआ
स्पष्टीकरण किसी भी
व्यक्ति या विशेष का
पूर्णतया सत्य होता है??
या फिर हर सत्य का प्रस्तुतीकरण
अपने हित को सर्वपरि
रख के किया जाता है?
बस यही जानने कि कोशिश
मैंने भी कि
फिर क्या ?
बुद-बुद चूने लगी
कश्मकश कि सिली टूटी छत से
सूखती चली गयी हर बूँद इच्छा कि
सत्य को जानने कि
सब धुंधलाता चला गया
और उलझाता चला गया
क्यूंकि वास्तविकता तो यही है
किसी के भीतर झांक के देख पाना
मुनासिफ नहीं था मेरे लिए
महसूस जो भी किया
वो सत्य से ज्यादा खूबसूरत होता
जो जान पायी उसमे थोड़ी खट्टास थी
और जो सत्य होगा
वो मेरे लिए तहक़ीक़ात के बाद भी
पूरी तरह से पता लगा पाना मुश्किल
मैं अनुमान लगाना चाहती थी
लेकिन ये मुझे कहीं न कहीं
असत्य कि ओर ढकेल देता
ऐसे में किसी को दोषी कहने
या निर्दोष कहना
दोनों ही निरर्थक लगा...
इस तलाश में मुझे मिला
बस उतना कि सत्य
जो अपने अपने बचाव के लिए
हित में निहित करके सामने रखा गया
अपूर्ण सा सत्य
क्या हुआ ?
कैसे हुआ ?
क्यूँ हुआ ?
ये जानना ज़रूरी अब नहीं लगता
बशर्ते अब सिर्फ इतनी ही जिज्ञासा बची है
क्या अब जो हो रहा है
वो सत्य है ?
या
सुंदर सा कोई झूठ ?
जो पलक झपकते ही कोई सपना होने वाला है !!!


रचनाकार : परी ऍम 'श्लोक'

"भूख ही भूख"

कितनी भूख में लिबड़ा हुआ है
समाज का जन-जन
इसी भूख से घृणित रूप उभर के
समाने आता है समाज का
कितनी भूख है व्याप्त ?
हर व्यक्ति के अंदर
बस भूख ही भूख
कहीं गरीब रोटी के लिए भूखा
जिनका पेट भरा है
वो शरीर के लिए भूखा
जिद्द और गुस्सा
किसी के खून के लिए भूखा
जो कम कमा रहा है
अपनी जरुरत से ज्यादा जरुरतो को
पूरा करने के लिए भूखा
भाई-भाई का रिश्ता
कुछ टुकड़े ज़मीन के जिए भूखा
माँ-पिता के प्रति स्नेह
पैतृक सम्पति के लिए भूखा
सब भूख के हत्थे चढ़ चुके हैं
टंग गए हैं इसी भूख के लिए
कितने अधिक प्रतिशत समाज के अंग
भ्रष्टता और अपराध
के सलीब पे
इक जरिया बन गया है
देह व्यापार भी
पैसे कि भूख को तृप्त करने का
क्यूंकि अब इंसान कि कामुकता
उसके सर पे चढ़ गयी है
और वो गुलाम बन गया है
ऐसी भावना का,,
जहाँ औरत का मान सर्वोपरि होता था
आज भी हम उसी देश के नागरिक हैं
परन्तु मान का अर्थ सिकुड़ के
रह गयी है
मात्र कुछ प्रतिशत में
कुछ भी तो नहीं रहा
आज भूख से ऊपर
इक गहरा सत्य यही है!

परन्तु
क्या भूख को
अपराध मुक्त किया जा सकता है?
क्या हैं ये मुमकिन?
मतलबी सामाजिक लोगो के बीच
जिन्होंने कानो में रुई,
आँखों पे पट्टी
और
मानवता को किसी
तालाबंद बक्से में
कैद करके रख दिया है
अक्सर ही मैं निरुत्तर हो जाती हूँ
इस प्रश्न को करने के बाद !!!

रचनाकार : परी ऍम 'श्लोक'

Saturday, February 8, 2014

~~जीवन लय पे~~

जीवन लय पे
हर अक्स
नृत्य कर रहा है!

बदल जाता है तो
सिर्फ संगीत के बोल
जो कभी मोह लेते हैं
तो कभी चीखो कि तरह
प्रतीत होते हैं...

हताश
और
मज़बूर कर देते हैं
थम जाने को !

लेकिन ऐसा कहाँ होता है?

साँसों कि गिटार
धड़कनो को
धम-धमाने लगता है
बेशक चाह समाप्त हो जाए  
पर जब तक गिटार कि
तार नही टूटती
कुछ भी नही रुकता

न जिंदगी कि लय
न ही नाचता हुआ अक्स!!!


रचनाकार : परी ऍम 'श्लोक'
 

Friday, February 7, 2014

!!हम उन्ही पे अपनी जिंदगी लुटाते रहे!!


हम उन्ही पे अपनी जिंदगी लुटाते रहे
जो तिनके सा हमें फूंक के उड़ाते रहे

कभी नन्हे आरज़ू को कांधो पर बिठा लिया
कभी चींटी सी गुजारिश भी मसल जाते रहे

दिल में रख के भी हमें नवाज़ा रुस्वाइयों से
जो तमाम दुनिया मेरी आँचल को बताते रहे

मन किया था हद तोड़ कर रुबरु हो जाएँ
मगर फरेबो के साये जाग कर मुझे डराते रहे

शौकीन था ता-उम्र शौक से जी-भर खेला
हम नसीब के चालबाज़ी से शिकस्त खाते रहे

बर्बादियों कि खबर मेरे दुश्मनो को क्या लगी
भटके हुए मुसाफिर आकर रास्ता बताते रहे

कह तो दिया था आह दाब के कि बड़ी मिठास है
आंसू के नमकीनी पानी मगर हकीकत जताते रहे

बाज़ है किलकारियो से जिनके यहाँ का मौसम भी 
वो फ़कीर सर पर चढ़ कर खिल्लियां उड़ाते रहे

ख़ुदा बनने का जूनून 'श्लोक' के ईमान में रवां था
इंसान बनता गया हम जितना सच सुनाते रहे


ग़ज़लकार : परी ऍम 'श्लोक'

!! गम को रोशनी कि ज़रूरत है !!


गम को रोशनी कि ज़रूरत है
बशर्ते हम जलके अहसान कर रहे हैं

हमारे पास कुछ तो है तसल्ली के लिए
जो कंगाल हैं वो भी गुमान कर रहे हैं

सच तेरा दम घुटता तो होगा बहुत
झूठ वाले मुनाफे में दूकान कर रहे हैं

बदलते दौर में बदलते तेवर ज़माने के
कोई हो न हो मगर मुझे हैरान कर रहे हैं

लिपे-पुते चेहरे अदाओ का रंगीं लिबास
'श्लोक' ये मुझको भी बेजुबान कर रहे हैं

अपनी कश्ती को खुद ही डुबोके 
नादान जंग का ऐलान कर रहे हैं

वादा किया था कुछ बेहतरीन लिखेंगे
हर्फ़ तबसे मुझे परेशान कर रहे हैं


ग़ज़लकार : परी ऍम 'श्लोक'

"उम्मीद"

उम्मीद हूँ मैं
यदि तुम न मारो
तो मर नहीं सकती
जीत हूँ मैं
हारना नही सीखा मैंने..
मैं साथ हूँ तुम्हारे
दृढ़ विशवास के निष्ठां के
तुम राह पर चलो
मंज़िल को सोच कर
तुम नींद में सोओगे
तो मैं जाग कर पहरा दूंगी
ताकि कोई तुम्हारे स्वप्न कि
हत्या करने का साहस न करे
बस तुम मुझे मित्र बना लो
हाथ कदापि न छोड़ूंगी
ताकत को कई गुना कर दूंगी  
बदल दूंगी तुम्हारे साहस से
निश्चय ही स्वप्न को यथार्थ में
जब तक मैं चलूंगी
तुम्हे रुकने न दूंगी
थकने भी न दूंगी 
मैं साथ हूँ तुम्हारे हर मुश्किल में
हर तूफ़ान में थामने को तुम्हे
उड़ती हूँ मैं अर्श में
बंज़र ज़मीन को लहलहा सकती हूँ
सूखा ताल लबालब कर सकती हूँ
किन्तु मुझे आधार चाहिये
रहने के लिए स्थान चाहिए
तुम मुझे जगह दो
मैं तुम्हे ओढ़ लुंगी
झुका दूंगी जीत को तुम्हारे कदमो में
बिछा दूंगी सितारे तुम्हारे रास्ते में
दीप कि तरह प्रज्वलित रहूंगी
और देती रहूंगी उजाला
हर क्षण पीड़ा को मद्धम कर
मुझे छोड़ना मत कभी
उम्मीद हूँ मैं चलती हूँ हथेलिओं में लेकर जीत कि मशाल!!

रचनाकार : परी ऍम श्लोक

"जमाने के रंग"


मैं चलती हूँ
तो चलता हैं
साथ-साथ ज़माना
मैं गिरती हूँ
तो चढ़ के निर्दयिता से
कुचलने लगते हैं
जब हसती हूँ
तो जाने क्यूँ
जल से जाते हैं ?
जब रोती हूँ तो
बजाने लगते हैं तालियां
सर्कस बना दिया हैं
दूसरो का जीवन जैसे
हर दूसरे व्यक्ति ने 
चले आते हैं घटना सुनके
पीड़ा लादे थकी हुई
पीठ को थपथपाने 
पेट भरा हो तो
सब घेर खड़े हो जाते हैं
जब भूखी रहती हूँ
तो मुख फेर के खड़े हो जाते हैं
कोई न पढ़ पाया जन को
अदृश्य लिखावटों में
जाने क्या-क्या रच जाते हैं?
अब ताल कटोरा नैन का सुखाय लिए
हर समस्या कि
हम भी अट्हास उड़ाते हैं
जब से जान पाये हैं
इनके मन्त्र हैं मीठे बोल
हम भी इन्ही में रच-बस के
राब से ही बन जाते हैं!!


रचनाकार : परी ऍम श्लोक

"बरसात में शहर"


होती है बरसात
इस शहर में भी
कड़कती बिजलियाँ,
वैसे ही घनघोर काले बादल
जब मैं खिड़कियों से
झाँक कर देखती हूँ
तो माले मिलते हैं भीगते हुए
समंदर मिलता है डूबते हुए
लोग पैदल चलते मिलते हैं
छाता ताने, बरसाती पहने
पानी कि बौछार धो देता है
बड़ी-बड़ी कार के शीशे ओर छत
आती है ठंडाई सी हवा
तट से टकरा कर
मेरी बालगनि तक
पर फिर भी नहीं यहाँ
मेरे गांव कि तरह
चिड़िया का चहकना,
पेड़-पौधो का हरियाना
पहाड़ो से झर कर आता हुआ
जमीन कि सतह तक बरसाती पानी
भीगता हुआ खेतो को जोतता
या फिर रोपता हुआ
धान कि फसल को दलदले ज़मीन में
मुस्कुराता हुआ किसान,
कूदते हुए मेंढक
बड़ा अधूरा सा रहता हैं
बरसात भी इस शहर का !!



रचनाकार : परी ऍम 'श्लोक'

" कवि "

आशावादी कवि बनना चाहती थी
हमेशा से ही मैं...
तब जब कभी मैंने पहली बार
शब्दो को सज़ा के लिखा था
और पढ़ा था किसी कवि को !

मगर हुआ यूँ कि
निराशा कि मांजे वाली जाल में
फस के मैं गिर पड़ी इक रोज़
और
आशा कहीं झट से धुँआ हो गयी
बचे हुए वादी के साथ
निराशा ने फट से गाँठ जोड़ लिया !

कल्पना करना चाहती थी
बहुत दूर तक फैलाना चाहती थी
अपने सोच के बहुरंगी पंख
लेकिन
हकीकत में ऐसी बहुत सी घटनाएं
मेरे सामने घटित होने लगी
जिसे अनदेखा करना
मुनासिफ बिलकुल नहीं था !

जो मैंने महसूस किया
अपने आस-पास होता हुआ
उसपे काफी विचार किया
अंदर के कवि ने सलाह दी कि
सत्य ली लाइन खींचती हुई आगे बढूँ
अंजाम कि फ़िक्र कलमवाले नही करते !

बस फिर मैं लिखती चली गयी
बिना ये जाने-बूझे कि मेरे बारे में

किसी कि व्यक्तिगत या संगठित रूप में 
क्या राय बन सकती हैं?

कि मैं क्या हूँ ?
किस मिज़ाज़ कि कवि हूँ??

रचनाकार : परी ऍम श्लोक

" जीवन-कविता "

मैंने तुम्हारी कविता को
पाला पोसा और बड़ा किया
शब्दों को जोड़-जोड़ के
नया विषय मीनार खड़ा किया
ढूंढ-ढूंढ के लायी लहर संवाद
हर्फ़ की हर सतह को हरा किया

मैंने तुम्हारी कविता को
पाला पोसा और बड़ा किया…

कलम लगाया नम्र संवेदनाओं का
सोच की ज़मीन को झरझरा किया
जगा दिया मानवता के सोये पहरी को
आवाज़ कि लय को इतना कड़ा किया
पतझड़ को समझाया बसंत कि खूबी
सावन के नाम पानी का दरिया किया
लू की थपेड़े सहन की क्षमता भर दी
हवाओं का आँचल खुशबुओं से जड़ा दिया 

मैंने तुम्हारी कविता को
पाला पोसा और बड़ा किया…..

राहों को भेट में दे दिए पहिये मैंने
पेड़ो से फुटपाथों का सीना चौड़ा किया
चट्टानों का ठूँठ-ह्रदय चीर निकाला दरिया मैंने
दुल्हन प्राकृति का रंग-रूप सुनहरा किया
पोखरा का गोद भर दिया पानी से
ओस कि बूंदो को मोती बना दिया
सूरज के सर पे रख दिया सेहरा
चाँद का नूर बेदाग़ अप्सरा किया

मैंने तुम्हारी कविता को
पाला पोसा और बड़ा किया!!


 
रचनाकार : परी ऍम श्लोक

" कहाँ ढूँढू "

कुछ खोया सा लग रहा है..
कहाँ ढूँढू ?
और
क्या?
यूँ ही बेचैनियाँ
कुताहल मचा रही होंगी!
लेकिन बेवजह
क्या कभी कुछ होता है?

ओह ! 

तुम्हे नज़र भर क्या देखा?
सब कुछ बदल गया है तबसे..

जिंदगी का मिज़ाज़
खट्टा-मीठा-नमकीन मिलाकर
कुछ नया से स्वाद में
अचानक ही परवर्तित हो गया !

चुरा ले गए तुम
कुछ तो ?
और
मिला गए हो
कोई उन्माद असर ....

बताओ ! बताओ ! बताओ !

तुम ही ये गूढ़ा रहस्य....

आखिर किस वज़ह से हम
चाहकर भी निकल नही पा रहे हैं
बेकाररियो के प्रगाढ़ भवसागर से ?


रचनाकार : परी ऍम 'श्लोक'
 

"नहीं कहूँगी"

कहने को नही है
कुछ भी मेरे पास
पर अगर तुम सुनोगे
तो जरूर कह डालूंगी
तूफ़ान सी अंदर उठती हुई
असमंजस कि अजीबो-गरीब दास्तान...
हो सकता है तुम्हे समझ ज़रा भी न आये
यकीनन इसके लिए वो एहसास चाहिए
जो तुम्हे पाने के पहले दिन से
मेरे ह्रदय में पनप उठा है
और मुझे वहमो के झूले में बिठा
पेंगी लगता हुआ पत्ता रहा है !

सब कहते हैं मैं बावली हो गयी हूँ
तुम्हे तो मेरी तनिक भी सुध नहीं
फिर भी मैं हूँ कि तुम्हे भूलती ही नहीं

कैसे भूलूं क्या ये यूँही क्षणो में
भुला देने वाला इत्तफाक है ?
 सच कहूं ? जितना सुख देती है
उठती-गिरती गोते लगाती सी खलल
उतनी ही पीड़ा देती है तुम्हारी अनुपस्थिति

बड़ी तल्लीनता से गढ़ा है तुम्हे 
तुम सपना हो इक सुंदर सा
जिसे जीने कि भूल कर बैठी हूँ
सपने तो होते हैं टूटने के लिए
पर तुम्हे मैं सजोना चाहती हूँ
हर तरह कि हलाहल से बचा के
और महफूज़ कर लेना चाहती हूँ
हमेशा के लिए तुम्हारी हर अदा,
हर सोच को मुझमे...

नहीं कहूँगी कि तुम मेरे हो जाओ
क्यूंकि तुम क्या चाहते हो?
ज्यादा महत्वपूर्ण है मेरे लिए
मगर
तराश लूंगी तुम्हारा अक्स
मैं आर-पार देह से रूह तक
ताकि तुम लाख चाह कर भी
मुझसे तुमको छीन न सको!!

रचनाकार : परी ऍम 'श्लोक'

!! ऐसी कल ना थी !!

दामन-ए-सकूं थी फटा आँचल न थी
जो मैं आज हूँ ऐसी कल ना थी 

तहज़ीब थी बाखूब चलने कि हमें
राह भटक जाऊं ऐसी पागल ना थी

कुछ वक़्त पहले ही ये कहर बरपा है
मन के हौज़रे में वरना उलझन ना थी

बेखौफ फांद जाते थे कैसी भी दीवार
फैसलो में मेरे इतनी सिहरन ना थी

हम आदि थे मुश्किलो से दोस्ती के
कांटो से कभी इतनी चुभन ना थी 

बेरंग हो गयी थी वो तस्वीर 'श्लोक'
बदनसीब इसकदर तो मेरी कलम ना थी


ग़ज़लकार : परी ऍम 'श्लोक'

!! अच्छा नहीं लगा !!

इंसान कोई इस शहर का सच्चा नहीं लगा
घर से निकल के बाहर मुझे अच्छा नहीं लगा

सपनो कि उड़ान ने लाकर गिराया ज़मीं पर
नींद का मुझे कुछ यूँ सताना अच्छा नहीं लगा

जबरन खींच लिया है यौवन ने दहलीज़ पर
बचपन का हाथ छूट जाना अच्छा नहीं लगा

रोने पे भाग आते थे मेरे अपने किसी वक़्त
मुस्कुरा के उनसे आहें छिपाना अच्छा नहीं लगा

बड़े आराम से कह जाते हैं फैसले हम ही लेंगे 
हर किसी का यूँ हक़ जताना अच्छा नहीं लगा

ताड़ता रहा मेरे यौवन को छुपी-फिरि नज़रो से
मोहोब्बत के नाम पे हवसखाना अच्छा नहीं लगा

कायदे अलग क्यूँ जब इंसान हम एक हैं?
औरत के हिस्से में नसीब-ए-पैखाना अच्छा नहीं लगा

सम्भाले हुए हैं इक टीस सी बगावत सीने में 
माटी सा रिश्ता झाड़ जाना अच्छा नहीं लगा

ता-उम्र जिनका वास्ता नहीं रहा जिंदगी से मेरी
मेरे मरने पे उनका आँसू बहाना अच्छा नहीं लगा


ग़ज़लकार : परी ऍम 'श्लोक'

" चिरैया जीवन "


तुम सो रहे हो
अहम् कि गहरी नींद
पूरे संतोष के साथ
आकांक्षाएँ धर के
तकिये के नीचे..

किन्तु   
जब तुम्हारी नींद टूटेगी
तुम जागोगे
तो ये चिरैया उड़ जायेगी.

फिर तुम्हे कहीं न दिखेगी दोबारा
पर्वत, वृक्ष, या आकाश कहीं न ठहरेगी 
रिसियाके जिससे तुमने 
कई समय से बात भी नहीं कि

इक-इक करके घट रहा है जीवन
बढ़ रही हूँ मैं आगे कि ओर ....

ऐसा न हो सुबह भी
तुम्हे रात जैसी प्रतीक होने लगे
चहकती चिड़िया कि चहक
खामोशियो में बदलते ही!!


रचनाकार : परी ऍम 'श्लोक'

" वैश्याएं "


कई हज़ारो संख्या में
सौन्दर्य कि देवियाँ  
नीचे से ऊँचे दामो पर
उन गलियो में बने
हर घर कि कोठरी में
सामान कि तरह मिलती हैं
उनकी बोली लगती है
नीलाम वस्तुओ कि तरह
वहाँ कोई ब्याहने के लिए
रिश्ता लेकर
उन्हें देखने या
पसंद करने नहीं जाता 
उन्हें कोई भी आशा नहीं होती
इस कैद से आज़ाद होने कि
कच्ची उम्र से अंत तक
आँखे ग्राहक खोजती है
ग्राहक उनमें औरत
गुण-अवगुण का
कोई अर्थ नहीं होता
हर पुरुष का भोग बनती है
ह्रदय तो होगा यकीनन उनमें भी
लेकिन शायद प्रेम का ताल
सूख जाता है देह परोसते-परोसते
क्यूंकि उन्हें मालूम होता है
केवल उनमें ही इतना सामर्थ्य है
कि वो अपने घर में
खरीददारों को इक कोना दे सकती हैं
किन्तु निसंदेह ये आशा नहीं होती
कि वो किसी के घर में
कोई कोना पा भी सकती हैं
बिता देती हैं इक जीवन
वासना को झेलते हुए
खुद को कोसते हुए
फिर इसी संसार में
जिन्हे हम अलग नाम से नावाज देते हैं
कि आखिर हैं तो वो वैश्याएं !!



रचनाकार : परी ऍम 'श्लोक'

(((हमारे समाज कि घृणित मानसिकताओं ने शय दिया है वैश्यावृति के बढ़ोतरी को ये जानते हुए कि शायद ही कभी इसपे लगाम लगे मैंने कोशिश कि है इस खरीद-बेच में सामान कि तरह बिकने वाली औरत के दर्द को इक औरत कि तरह महसूस करके व्यक्त करने कि))))
!! "मेरी एक कोशिश वैश्याओ के लिए लिखने की..जो कभी मज़बूरन तो कभी जबरन पहुँच जाती है नरक में" !! 

कौन गायेगा गीत??


न जानु मैं
गीत मेरे मीत कोई
ना मीठी मेरी वाणी हैं..
कौन गायेगा अब गीत?
कोयलिया गूंगी हो गयी है..

वो सुर कहाँ से आएगा?
स्वर कौन दे जाएगा?
मीठा बोल कोई क्या पायेगा?
कोयलिया गूंगी हो गयी है..
गर्मियों कि तपती तेज़ दोपहरी में
कूक से सान्तवना मन कैसे पायेगा?
बागीचे के पेड़ के फुंगासे का
आम खाकर तोड़ कौन गिरायेगा?
पात-पात डाली-डाली को
घूम-घूम कौन सहलाएगा?
मौसम कि आनी-जानी का
ब्यौरा कौन साधायेगा?
ढोल-मजीरा हवा को बना
लय में कौन बजायेगा?
दिन उजेरी है या श्याम होने को आयी
कूक-कूक के कौन चेताएगा?
कोयलिया गूंगी हो गयी है....

सन्नाटे कि मनमानी को कौन मिटाएगा?
सोयी आशा कौन जगायेगा?
कल्पनाओ को आस्था के
पंख कौन लगाएगा?
कोयलिया गूंगी हो गयी है.
सून-सून वन रह जाएगा
जब कोई न बांसुरी बजायेगा
कोयल आज बैठी है चुपचाप
अब कौन कूकेगा संग कौन चिढ़ाएगा?
कोयलिया गूंगी हो गयी है.

न जानु मैं
गीत मेरे मीत कोई
कौन गायेगा अब गीत?
कोयलिया गूंगी हो गयी है!!!.


 रचनाकार : परी ऍम 'श्लोक'

"अन्धकार में भविष्य"


उठती हैं माँ
सुबह सवेरे जल्दी से
करने लगती है
नाश्ते कि तैयारी
बच्चो को विधयालय भेजना है
ये नही भूलती है वो कभी
नहला धुला के कर देती है
बच्चो को तैयार...
दे देती है पोष्टिक नाश्ता
लदा देती है बस्ता
अंतराल में खाने के भोजन के साथ
और भेज देती है
विश्वास से विद्यालय को
परन्तु वो बच्चे अक्सर नज़र आते हैं मुझे
पार्क में, सिनेमा हाल में, होटल में
बस कहीं न कहीं
घूमते हुए बस्ता पीठ पर लादे
भूले हुए माँ का त्याग
पिता कि मेहनत मज़दूरी को
अपना भविष्य रख के ताक पर
चल देते हैं धोखा देकर
कि वो बहुत अच्छे और आदर्श बच्चे हैं
करेंगे एकदिन माँ-बाप का सपना पूर्ण
किन्तु कैसे ?
ये एक गम्भीर प्रश्न है
पार्क का सौन्दर्य बनाएगा सुंदर भविष्य?
या सिनेमा हाल कि
फ़िल्म बनाएगी उन्हें अभिनेता?
ये सोचने का बूझ कहाँ है उनमें?
उनके भविष्य कि धच्चियां उड़ा के
ख़ुशी मनाते हैं वो बच्चे
और सोता है विद्यालय
अपने फ़र्ज़ से मुँह फेर के 
अन्धविश्वास के नशीली शराब में
डूबे रहते हैं माता-पिता
फसे रहते हैं झूठे सपने के भंवर में
कि उनका बच्चा एक दिन करेगा उनका नाम रोशन!!


रचनाकार : परी ऍम 'श्लोक'
 

Thursday, February 6, 2014

!! ग़ज़ल- जफा-ए-जुस्तज़ू-ए-मानूस !!

कौन से खुश लम्हे जिंदगी के गुनगुनाऊ मैं
करती हूँ कोशिश कि खुद को भी भूल जाऊं मैं

कहाँ से पुराने फटे हर हर्फ़ को फिर नया करूँ मैं
किस तरफ से लुटने कि दास्तान तुझे बया करूँ मैं

आ लगे ख्वाब के टुकड़े टूट कर मेरे ही सीने में
दर्द होता है बहुत बेमकसद बेवजह अब तो जीने में

क्या कहूं क्यूँ ये बेसुध सी बेसुर हुई शहनाई हैं
वफ़ा कि राह में बेहद चोट हमने भी खायी हैं

मौसम कि तरह इश्कवाले भी बदल जाते देखे
मुश्किलात में अक्सर ये बर्फ से गल जाते देखे

तेरी तलाश में मुकद्दर का फरेब सहती गयी मैं
रोई तन्हाई में फूटकर महफ़िल में हसती रही मैं

तू कवि है, शायर है या शख्स बेहद आम कोई
तू ही बता दे आज अपनी मुझे पहचान कोई

बड़ी शातिर है दुनियाँ अहमक बना के छलती गयी
तेरी हसरत में गिर-गिर उठी और संभलती गयी मैं

थी रोशन सा नूर चाँद का चहरे पे लिए मैं
वक़्त के तेवर को देख शाम बनके ढलती गयी मैं

बड़ी खुशमिज़ाज़ थी अपनी भी आदत इससे पहले 'श्लोक'
गम कि आंच में सुलगी और फिर जलती गयी मैं

अब इसके बाद न पूछो कि क्या मिला हमको
रह गयी बाकी साँसों से अपने बस गिला हमको

तेरे बिना जीत कैसी मैं शख्स भी तो सिर्फ हारी हूँ
खुदा के दर कि लुटी आरज़ू कि बेज़ार सवाली हूँ

इससे ज्यादा लव्ज़-ए-टीस तुमको क्या सुनाऊ मैं
दुआ करो कि इस कश्मकश से निकल जाऊं मैं



ग़ज़लकार : परी ऍम 'श्लोक'